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________________ ३६६ श्री संवेगरंगशाला प्रारम्भ में ही अल्प सुख के स्वभाव वाला, मैथुन सुख के विवेकी केवल एक मोक्ष सुख की अभिलाषा कौन रखता है ? मैथुन के कारण से उत्पन्न किया पाप के भार से भारी बना मनुष्य लोहे के गोले के समान पानी में डूबकर नरक में गिरता है । ब्रह्मचर्य के गुण :- अखण्ड ब्रह्मचर्य को पालकर सम्पूर्ण पुण्य के समूह वाला मनुष्य इच्छा मात्र से प्रयोजन सिद्ध करने वाला उत्तम देवत्व प्राप्त करता है । और वहाँ से च्यवन कर मनुष्य आयुष्य में देव समान भोग उपभोग की सामग्री वाला, पवित्र शरीर वाला और विशिष्ट कुल जाति से युक्त होता है, वह मनुष्य आदेय पुण्य वाला, सौभाग्यशाली, प्रिय बोलने वाला, सुन्दर आकृति वाला, उत्तम रूप वाला तथा प्रिय और हमेशा प्रमोद आनन्द करने वाला होता है । निरोगी, शोक रहित, दीर्घायुषी, कीर्तिरूपी, कौमुदिनी के चन्द्र समान, क्लेश आदि निमित्तों से रहित, शुभोदय वाला, अतुल बल-वीर्य वाला, सर्व अंगों में उत्तम लक्षणधारी, काव्य की श्रेष्ठ गूंथन समान अलंकारों वाला, श्रीमंत, चतुर, विवेकी और शील से शोभते तथा निरूपक्रमी, पूर्ण आयु को भोगने वाला, स्थिर, दक्ष, तेजस्वी, बहुत मान्य और ब्रह्मचारी विष्णु-ब्रह्मा के समान होता है । इस चौथे पाप स्थानक में प्रवृत्ति के दोष और निवृत्ति के गुणों के विषय में गिरि नगर में रहने वाली सखियों का और उसके पुत्र का दृष्टान्त रूप है, वह इस प्रकार है -: तीन सखी आदि की कथा रैवतगिरि से शोभता विशिष्ट सौराष्ट्र देश के अन्दर तिलक समान गिरि नगर में तीन धनवान की तीन पुत्री सखी रूप में थीं । उसी नगर में उनका विवाह किया था और श्रेष्ठ सुन्दर मनोहर अंगवाली उन्होंने योग्य समय पर एक-एक पुत्र को जन्म दिया था। किसी एक दिन नगर के पास बाग में तीनों सखी मिलकर क्रीड़ा करने लगीं, उस समय चोरों ने उनको पकड़कर पारस ' नामक देश लेकर गये और वेश्या से बहुत धन लेकर बेचा । वेश्याओं ने उनको सम्पूर्ण वेश्या की कला सिखाई । फिर दूर देश से आये हुये श्रेष्ठ व्यापारी के पुत्र आदि के उपभोग के लिये उन सखियों की स्थापना की और लोगों से उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की । इधर तीनों सखी के पुत्रों ने यौवनवय प्राप्त किया, तीनों पुत्र पूर्व माताओं के दृष्टान्त से ही परस्पर प्रीति से युक्त रहते थे, उसमें केवल एक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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