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श्री संवेगरंगशाला
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ऐसा मैथुन अति दृढ़ अभिलाषा प्रगट करता है, क्योंकि जीवों की स्वभाव से ही मैथुन संज्ञा अति विशाल होती है, उससे प्रतिदिन बढ़ती है, इच्छा रूप वायु द्वारा अति तेजस्वी ज्वाला वाली प्रचण्ड कामाग्नि किसी प्रकार शान्त नहीं होती है इस तरह सम्पूर्ण शरीर को जलाती है, और इससे जलता जीव मन में उग्र साहस धारण करके अपने जीवन की भी बेकदरी करके, बुजुर्ग की लज्जा आदि का भी अपमान करके मैथुन का भी सेवन करता है । इससे इस जन्म, परजन्म में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । इस जन्म में वह हमेशा सर्वत्र शंकापूर्वक भ्रमण करता है । बाद में कभी किसी स्थान पर लोग यदि उसे व्यभिचार सेवन करते रूप देख लेते हैं, तब क्षण में मरने के लिए पीड़ा हो, इस तरह दीन मुख वाला बनता है । और घर के स्त्री के मालिक अथवा नगर
कोतवाल से पकड़ा हुआ तथा उसे मार-पीट कर दुष्ट गधे पर बैठाया जाता है, उसके बाद उस रंक को उद्घोषणापूर्वक जहाँ तीन मार्ग का चौक हो, चार रास्ते हों, ऐसे चौक में बड़े राज्य मार्ग में घुमाते हैं उद्घोषणा कराता है किभो भो नागरिकों ! इस शिक्षा में राजा आदि कोई अपराधी नहीं है, केवल अपने किए पापों का अपराधी है, इसलिए हे भाईयों ! इस प्रकार के इन कर्मों को अन्य कोई करना नहीं ! इस प्रकार मैथुन के व्यसनी को इस जन्म में हाथपैर का छेदन, मार बन्धन, कारागृह और फाँसी आदि मृत्यु तक के भी कौनकौन से दुःख नहीं होते ? और परभव सम्बन्धी तो उसके दोष कितने प्रमाण में कहूँ ? क्योंकि - मैथुन से प्रगट हुए पाप के द्वारा अनन्ता जन्मों में परिभ्रमण करता है ।
इसलिए हे भाई ! सत्य कहता हूँ कि सर्व प्रकार से मैथुन को सम्यक् त्याग कर दे, उसके त्याग से दुःख स्वभाव वाली दु:गति का भी त्याग होता है । और भी कहा है कि- मैथुन निन्दनीय रूप को प्रगट करने वाला, परिश्रम और दुःख से साध्य, सर्व शरीर में बहुत श्रम से प्रगट हुआ पसीने से अति उद्वेग करने वाला, भय से वाचा को भी व्याकुल करने वाली, निर्लज्ज का कर्त्तव्य और निन्दनीय है, इस कारण से ही गुप्त रूप में सेवन करने योग्य है, हृदय व्यापि क्षय आदि विविध प्रकार की व्याधियों का कारणभूत और अपथ्य भोजन के समान बल-वीर्य की हानि करने वाला है, किंपाक फल के समान भोगने योग्य वह आखिर में दुःखदायी, अति तुच्छ और नृत्यकार के नाच समान अथवा गंधर्व नगर के समान, भ्रान्ति करने वाला है । सारे जगत में तिरस्कार को प्राप्त करते कुत्ते आदि अधम प्राणियों के भी वह समान है । सर्व को शंका प्रगट करने वाला, परलोक में धर्म, अर्थ का विघ्नकारी और