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________________ ३६० श्री संवेगरंगशाला विज्ञप्ति आदि बात करता था, परन्तु किसी को भी नजदीक आने नहीं देता था । और वह पर्वत तथा नारद भी शिष्यों को अपने-अपने घर वेद का अध्ययन करवाते थे, इस तरह बहुत समय व्यतीत हुआ । किसी समय अनेक शिष्यों के साथ नारद पूर्व स्नेह से और अपने गुरू के पुत्र मानकर पर्वत के पास आया, पर्वत ने उसका विनय किया और दोनों बातें करने लगे । प्रसंगोपात अति मूढ़ पर्वत ने यज्ञ के अधिकार सम्बन्धी व्याख्यान किया " अहं जट्ठव्व" इस वेद पद से 'अज अर्थात् बकरे द्वारा ' यज्ञ करना चाहिये । इस तरह अपने शिष्य को समझाया । इससे नारद ने कहा कि - यहाँ इस विषय में अज अर्थात् तीन वर्ष का पुराणा अनाज जो फिर उत्पन्न न हो ऐसे जो व्रीही आदि हो उसके द्वारा ही यज्ञ करना ऐसा गुरूजी ने कहा है । यह वचन पर्वत ने नहीं माना, इससे बहुत विवाद हुआ और निर्णय हुआ कि जो वाद में हार जाए उसकी जीभ का छेदन करना, ऐसी दोनों ने प्रतिज्ञा की तथा साथ में पढ़ने वाला वसु राजा था वह इस विषय में जो कहेगा वह प्रमाण रूप माना जायेगा । फिर नारद को सत्यवादी जानकर पर्वत की माता भयभीत हुई कि - निश्चय अब मेरे पुत्र के जीभ छेदन से मृत्यु होगी, इसलिए राजा के पास जाकर निवेदन करूँ । ऐसा सोचकर वह वसु राजा के घर गई । गुरू पत्नी आते देखकर राजा ने खड़े होकर विनय किया, फिर उसने एकान्त में नारद और पर्वत की सारी बातें कहीं। वसु राजा ने कहा कि - हे माता ! आप कहो, इसमें मुझे क्या करना है ? उसने कहा किमेरा पुत्र जीते ऐसा करो । उसके अति आग्रह के कारण वसु राजा ने भी स्वीकार किया और दूसरे दिन दोनों पक्ष उसके सामने आए, सत्य बात सुनाकर नारद ने कहा कि - हे राजन् ! तू इस विषय में धर्म का तराजू है, तू सत्यवादियों में अग्रसर है इसलिये कहो कि 'अजेहिं जट्ठव्व' इसकी गुरू जी ने किस तरह व्याख्या की है ? तब अपने सत्यवादी प्रसिद्धि को छोड़कर राजा ने कहा कि - हे भद्र ! 'अजेहिं अर्थात् बकरे द्वारा जट्ठव्व अर्थात् यज्ञ की पूजा करनी' ऐसा कहा है । ऐसा बोलते ही अति गलत साक्षी देने वाला जानकर कुलदेवी कुपित हुई और स्फटिक सिंहासन से नीचे गिराकर मार दिया और इसके बाद भी उस सिंहासन पर आठ राजा बैठे, उन सबको मार दिया । 'पर्वत भी अति असत्यवादी है' ऐसा मानकर लोगों ने धिक्कारा और वसु राजा मरकर नरक में उत्पन्न हुआ । नगर लोगों में सत्यवादी के रूप में नारद का सत्कार हुआ, उसकी इस लोक में चन्द्र समान उज्जवल कीर्ति हुई और परलोक में देवलोक की सुख सम्पत्ति की प्राप्ति की । इस तरह दूसरा मृषावाद
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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