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श्री संवेगरंगशाला
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पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान कीमत रहित बनते हैं । इस तरह सत्य असत्य बोलने के गुण-दोष जानकर - हे सुन्दर ! असत्य वचन का त्याग कर सत्यवाणी का ही उच्चारण कर । दूसरे पाप स्थानक में वसु राजा के समान स्थान भ्रष्ट आदि अनेक दोष लगते हैं और उसके त्याग जीव को नारद के समान गुण उत्पन्न होते हैं, वह इस प्रकार :
वसु राजा और नारद की कथा
इस जम्बू द्वीप नामक द्वीप में शक्तिमती नगर में अभिचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था और उसका वसु नाम का पुत्र था । उसे वेद का अभ्यास करने के लिए पिता ने आदरपूर्वक गुणवान् क्षीर कदंबक नामक ब्राह्मण उपाध्याय को सौंपा । उपाध्याय का पुत्र पर्वत और नारद के साथ राजपुत्र वसु वेद के रहस्यों का हमेशा अभ्यास करने लगे । एक समय आकाश मार्ग से अतीव ज्ञानी महामुनि जा रहे थे, इन तीनों को देखकर परस्पर कहा कि - जो ये वेद पढ़ रहे हैं उसमें दो नीच गति में जाने वाले और एक ऊर्ध्वं गति में जाने वाला है । ऐसा कहकर वे वहाँ से आगे चले । यह सुनकर उपाध्याय क्षीर कदंबक ने विचार किया कि - ऐसा अभ्यास कराना निरर्थक है, इससे क्या लाभ है ? इससे तो मुझे भी धिक्कार है, ऐसा संवेग प्राप्त कर उसने दीक्षित होकर मोक्ष पद प्राप्त किया ।
अभिचन्द्र राजा ने अपने राज्य पर अभिषेक करके वसु को राजा बनाया । वह राज्य भोगते उसे एक दिन एक पुरुष ने आकर कहा किहे देव ! आज मैं अटवी में गया वहाँ हरिण को मारने के लिए बाण फेंका था, परन्तु वह बीच में ही टकरा कर गिर पड़ा। इससे आश्चर्यचकित होते हुये वह वहाँ गया, वहाँ हाथ के स्पर्श करते मैंने एक निर्मल स्फटिक रत्न की शिला देखी जिस शिला के पीछे के भाग में हरिण स्पष्ट दिखता था । बाद में मैंने विचार किया कि वह आश्चर्यकारण रत्न राजा के ही योग्य है, इसलिए आपको कहने के लिये आया हूँ | यह सुनकर राजा ने उस स्फटिक की शिला को गुप्त रूप में मंगवाकर सिंहासन बनाने के लिए कलाकारों को सौंपा । उसका सिंहासन बनाकर सभा मण्डप में स्थापन किया, उसके ऊपर बैठा हुआ राजा आकाश तल अन्तरिक्ष में ( हवा में लटकता ) बैठा हो, इस तरह दिखता था । नगर लोग विस्मय होते और अन्य राजाओं में प्रसिद्धि हुई कि - वसु राजा सत्य के प्रभाव से अन्तरिक्ष में बैठता है । और ऐसी प्रसिद्धि को सदा रखने के लिए उसने उन सब कलाकारों को खत्म कर दिया और लोगों को दूर रखकर