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________________ ३५६ श्री संवेगरंगशाला ___इधर माता चिन्तातुर हो रही थी 'वहाँ क्या हुआ होगा' और उसके आने वाले मार्ग को देख रही थी, इतने में मुनिचन्द्र अकेले शीघ्र घर पर पहुँचा । तलवार को घर की कील पर लगाकर अपने आसन पर बैठा और उसकी पत्नी उसके पैर धोने लगी। शोकातुर माता ने पूछा कि-हे पुत्र ! थावर कहाँ है ? उसने कहा कि-माता जी ! मन्द गति से पीछे आ रहा है। इससे क्षोभ होते उसने जब तलवार सामने देखी तब खून की गन्ध से चींटियां आती देखीं और स्थिर दृष्टि से देखते उसने तलवार को भी खून से युक्त देखी, इससे प्रबध क्रोधाग्नि से जलते शरीर वाली उस पापिनी ने उस तलवार को म्यान में से बाहर निकालकर अदृश्य-गुप्त रूप में रहकर उसने अन्य किसी कार्य एकचित्त बने पुत्र का मस्तक शीघ्र काट दिया। अपने पति को मरते देखकर उसकी पत्नी का अत्यन्त क्रोध बढ़ गया और बन्धुमती के देखते-देखते ही मूसल से सासु को मार दिया और जीव हिंसा से विरागी चित्त वाली वह बन्धुमती हृदय में महा संताप को धारण करती घर के एक कोने में बैठी रही। नगर के लोग वहाँ आए और उस वृत्तान्त को जानकर उन्होंने बन्धुमति से पूछा कि-माता को मारने वाली इस बहु को क्यों नहीं मारा? तब उसने कहा कि-'मुझे किसी भी जीव को नहीं मारने का नियम है।' इससे लोगों ने उसकी प्रशंसा की और बहु को बहुत धिक्कारा । इसके बाद घर की सम्पत्ति को राजा ले गया, पुत्रवधू को कैदखाने में बन्द कर दिया और बन्धुमती सत्कार करने योग्य बनी। इस तरह प्राणीवध अनर्थ का कारण है। प्राणीवध नाम का यह प्रथम पाप स्थानक कहा है । अब मृषावाद नामक दूसरा पाप स्थानक कहते हैं। २. मृषावाद द्वार :-मृषा वचन वह अविश्वास रूप वृक्षों के समूह का अति भयंकर कंद है, और मनुष्यों के विश्वास रूप पर्वत के शिखर के ऊपर वज्राग्नि का गिरना है । निन्दा रूपी वेश्या को आभूषण का दान है, सुवासना रूपी अग्नि में जल का छिड़काव है और अपयश रूपी कुलटा को मिलने का सांकेतिक घर है, दोनों जन्म में उत्पन्न होने वाली आपत्ति रूप कमलों को विकसित करने वाला शरद ऋतु का चन्द्र है और अति विशुद्ध धर्म गुण रूपी धान्य सम्पत्तियों को नाश करने में दुष्ट वायु है, पूर्वापद वचन विरोध रूप प्रतिबिम्ब का दर्पण है और सारे अनर्थों के लिए सार्थपति के मस्तक मणि है। और सज्जनता रूपी वन को जलाने में अति तीव्र दावानल है, इसलिये सर्व प्रयत्न से इसका त्याग करना चाहिए। और जैसे जहर मिश्रित भोजन परम विनाशक है तथा जरा यौवन की परम घातक है, वैसे असत्य भी निश्चय सर्व
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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