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________________ ३४४ श्री संवेगरंगशाला आत्मा सर्व दुःखों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त करता है । इस तरह दुर्गति नगर के दरवाजे को बन्द करने वाला संवेग - मनरूपी भ्रमरों के लिए खिले हुए पुष्पों वाला उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम का सातवाँ अन्तर द्वार कहा है । अब पच्चक्खान करने पर भी क्षमापना बिना क्षपक मुनि की सद्गति नहीं होती है इसलिए क्षमापना द्वार को कहते हैं । आठवाँ क्षमापना द्वार : - पच्चक्खान करने के बाद निर्यामक आचार्य मधुर शब्दों से क्षपक मुनि को कहे कि - हे देवानु प्रिये ! पिता तुल्य, बन्धु तुल्य अथवा मित्र तुल्य इस तरह अनेक गुणों के समूह रूप यह श्री संघ अथवा जिसको तीन लोक को वन्दनीय है ऐसे तीर्थंकर परमात्मा भी 'नमो तित्थस्स' ऐसा कहकर नमस्कार करते हैं, वह अनेक जन्मों की परम्परा से प्रगट हुआ दुष्कृत्य रूपी अन्धकार के समूह को नाश करने में सूर्य समान महाभाग श्री संघ उसे उपकार करने यहाँ आया है, इसलिए भक्ति पूर्ण मन वाले तू इस भगवन्त श्री संघ को पूर्व कालिन आशातनाओं के समूह को त्याग करके पूर्ण आदरपूर्वक क्षमा याचना कर । फिर वह क्षपक मुनि भक्ति के भार से नमा हुआ अपने मस्तक पर दोनों हाथ से सम्यग् अंजलि करके " आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ, आपने मुझे श्रेष्ठ शिक्षा दी है ।" इस तरह गुरूदेव के वचन की प्रशंसा करता त्रिकरण शुद्धि से नमस्कार करके अन्य को भी संवेग प्रगट करते सर्व संघ को इस तरह क्षमा याचना करता है - हे भगवन्त ! हे भट्टारक ! हे गुणरत्नों के समुद्र ! हे श्री श्रमण संघ ! आपके कारण मैंने जो कुछ सूक्ष्म या बादर पापानुबन्धी पाप इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मन से चिन्तन किया हो, वचन से बोला हो अथवा काया से किया हो, अथवा मन, वचन, काया से यदि किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उन सब पाप को वर्तमान में मैं विविध - त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ । आपको नमस्कार हो ! आपको नमस्कार हो ! बारम्बार भी भाव से आपको ही नमस्कार हो ! निश्चय ही पैरों में गिरा हुआ मैं आपको बारम्बार खमाता हूँ । भगवन्त श्री संघ मुझ दीन पर दया करके क्षमा करो ! और निर्विघ्न आराधना के लिए आशीष देने के लिए तत्पर बनो। आपको खमाने से इस जगत में ऐसा कोई नहीं है कि जिसको मैंने खमाया न हो, क्योंकि - आप निश्चय समग्र जीव लोक के माता-पिता तुल्य हो, इससे आपको खमाने से विश्व के साथ क्षमा याचना होती है । आचार्य, उपाध्याय, शिष्य साधर्मिक कुल और गण के प्रति भी मैंने जो कोई कषाय, मन, वचन और काया से पूर्व में किया हो तथा करवाया हो और अनुमोदन किया हो उन सबको त्रिविध-त्रिविध खमाता हूँ तथा उनके
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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