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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि के लिए अपने संस्कार पोषण करे, केवल खट्टे पानी से श्लेष्म, कफ आदि का क्षय होता है और पित्त का उपशम होता है, वायु के रक्षण के लिए पूर्व कही विधि करनी चाहिए । पेट के मल की शुद्धि के लिये तिखे पानी का त्याग करके क्षपक मुनि को मधुर पानी पिलाना और मन्द रूप में देना। इलायची, दालचीनी, केसर और तमाल पत्र डाला हुआ सक्कर सहित उबालकर ठण्डा किया हुआ दूध को समाधि स्थिर रहे उतना पिलाकर फिर उस क्षपक मुनि को सुपारी आदि द्रव्य से मधुर दे कि जिससे जठराग्नि शान्त होने से सुखपूर्वक समाधि को प्राप्त करे । अथवा गुरू महाराज की आज्ञा से वस्ती कर्म आदि से भी उदर शुद्धि करना, क्योंकि-अशांत अग्नि होने से उदय में पीड़ा उत्पन्न करता है। इसके बाद क्षपक मुनि जावज्जीव त्रिविध से आहार का त्याग की इच्छा करे तब उस समय निर्यामक आचार्य श्री संघ को इस प्रकार बतलाए-जावज्जीव (जब तक जीता रहूँगा तब तक) अनशन स्वीकार करने की इच्छा वाला यह क्षपक महात्मा मस्तक पर हस्त कमल जोड़कर आपको पादवंदन करता है और विनति करता है कि-हे भगवन्त ! आप मेरे ऊपर इस तरह प्रसन्न हो-आशीर्वाद दो कि जिससे मैं इच्छित अर्थ अनशन को पार प्राप्त करूँ । इसके बाद प्रसन्न मन वाला श्रमण संघ क्षपक की आराधना के निमित्त और उपसर्ग रहित निमित्त कार्योत्सर्ग को करे । और फिर आचार्य श्री जी संघ समुदाय के समक्ष चैत्य वन्दनपूर्वक विधि से क्षपक मुनि को चतुविध आहार का पच्चक्खान करा दे, अथवा यदि समाधि के लिये आगारपूर्वक प्रारम्भ में विविध आहार त्याग करे, उसके बाद में भी पानी का सदाकाल (जावज्जीव तक) त्याग करे । पानी के उपयोग करने में जो पूर्व में छह प्रकार पानी कहा है वह उसे विविध आहार के त्याग में कल्प सकता है। इस तरह गुरू महाराज के पास से चारित्र के भार को उठाने वाला, सदा उत्सुकता रहित और सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में राग रहित जीव का पच्चक्खान करने पर आश्रव द्वार का बन्धन होता है और आश्रव का विच्छेद होने से तृष्णा का व्युच्छेदन होता है। तृष्णा व्युच्छेदन से जीव के पाप का उपशम होता है और पाप के उपशम से आवश्यक (समायिक आदि) की शुद्धि होती है। आवश्यक शुद्धि से जीव दर्शन शुद्धि को प्राप्त करता है और दर्शन शद्धि से निश्चय चारित्र शद्धि को प्राप्त करता है। शुद्ध चारित्र वाला जीव ध्यान-अध्ययन की शद्धि को प्राप्त करता है और ध्यान अध्ययन के विशद्ध होने से जीव परिणाम की शुद्धि प्राप्त करता है, परिणाम विशुद्धि से कर्म विशुद्धि को प्राप्त करता है और कर्म विशुद्ध से विशुद्ध हुआ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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