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________________ ३२४ श्री संवेगरंगशाला हा ! दैव ! यह क्या हुआ ?' ऐसा संभ्रम से घूमती चपल आँखों वाली बन्धुमती शीघ्र वहाँ पहुँची । फिर गुम हुए रत्न को जैसे खोज करते हैं वैसे अति चकोर दृष्टि से खोज करती उसने महामुसीबत से उसे उस अवस्था में देखा। उसे मरे हये को देखकर वज्र प्रहार के समान दुःख से पीड़ित और मूर्छा से बन्द आँख वाली वह करुणा युक्त आवाज करती पृथ्वी के ऊपर गिर गई। पास में रहे परिवार के शीतल उपचार करने से चेतना में आई और वह जोर से चिल्लाकर इस प्रकार विलाप करने लगी-हा, हा ! अनुपम पराक्रम के भण्डार ! हे अवन्ती राजा ! किस अनार्य पापी ने तुझे इस अवस्था को प्राप्त करवाया है, अर्थात् मार दिया ? हे प्राणनाथ ! आपका स्वर्गवास हो गया है, पुण्य रहित अब मुझे जीने रहने से कोई भी लाभ नहीं है । हे हत विधि ! राज्य लूटने से, देश का त्याग करने से और स्वजन का वियोग करने पर भी तू क्यों नहीं शान्त हुआ ? कि हे पापी ! तूने इस प्रकार का उपद्रव किया ? हे नीच ! हे कठोर आत्मा ! हे अनार्य हृदय ! तू क्या वज़ से बना है ? कि जिससे प्रिय के विरह रूपी अग्नि से तपे हुये भी अभी तक तेरा नाश नहीं हुआ ? वह राज्य लक्ष्मी और भय से नमस्कार करते छोटे राजाओं का समूह युक्त, वह तेरे स्वामी हैं अन्य किसी भी स्त्री न हो ऐसा मनोहर उनका मेरे में प्रेम था। उसकी आज्ञा का प्रभुत्व और सर्व लोक को उपयोगी उस धन को धिक्कार हो, जो मेरा सारा सुख गंधर्व नगर के समान एक साथ नाश हो गया है। आज तक आपके आनन्द से झरते सुन्दर मुख चन्द्र को देखने वाली अब अन्य के क्रोध से लाल मुख को मैं किस तरह देख सकूँगी ? अथवा आज दिन तक आपकी मेहरबानी द्वारा विविध क्रीड़ाएं की हैं, अब कैदखाने में बन्द हुए शत्र की स्त्री के समान मैं पर के घर में किस तरह रहँगी ? इत्यादि विलाप करती पुष्ट स्तन पृष्ठ को हाथ से जोर से मारती, बिखरे हुये केश वाली, भुजाओं के ऊपर से वस्त्र उतर गया था और कंकण निकल गये, लम्बे समय तक आत्मा में कोई अति महान शोक समूह को धारण किया। उस समय नर सुन्दर राजा ने अनेक प्रकार के वचनों से समझाया, फिर भी पतंगे के समान पति के साथ में वह ज्वालाओं से व्याप्त अग्नि में गिर गई। उस समय संवेग प्राप्त कर नर सुन्दर राजा चिन्तन करने लगा किअचिन्त्य रूप वाली संसार की इस स्थिति को धिक्कार हो कि जहाँ केवल थोड़े से काल के अन्दर ही सुखी भी दुःखी हो जाता है, राजा भी रंक हो जाता है, उत्तम मित्र भी शत्रु और सम्पत्ति भी विपत्ति रूप में बदल जाती है। बहन का बहुत लम्बे काल के बाद अचानक समागम किस तरह हुआ और शीघ्र वियोग
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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