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________________ श्री संवेगरंगशाला ३२३ और उनके खून से व्यंतरियों के समूह की प्यास दूर करूँगा । हे सुतनु ! यम के समान क्रोधायमान मुझे इसमें क्या असाध्य है ? इस तरह बोलते अपने भाग्य के परिणाम का नहीं चिन्तन करते राजा को, मधुर वाणी से बन्धुमति ने विनती की कि - हे देव ! आप प्रसन्न हों, क्रोध को छोड़ दो, शान्त हो जाएँ, अभी यह प्रसंग उचित नहीं है, समय के उचित करना वह सर्व कार्य का अति हितकर होता है । हे नाथ ! आप इस समय सहायक के बिना हो, श्रेष्ठ राज्य से भ्रष्ट हुए हो, और प्रजा विरोधी बनी है, फिर तुम शत्रुओं का अहित करने की क्यों चिन्तन करते हो ? अतः उत्सुकता को छोड़ दो, हम ताम्रलिप्ति नगर में जाकर वहाँ दृढ़ स्नेह वाले नर सुन्दर राजा को मिलेंगे । इस बात को राजा ने स्वीकार किया और चलने का प्रारम्भ किया। दोनों चलते क्रमशः ताम्रलिप्ति नगर की नजदीक सीमा में पहुँच गये। फिर रानी ने कहा कि - हे राजन् ! आप इस उद्यान में बैठो और मैं जाकर अपने भाई को आपके आगमन का समाचार देती हूँ कि जिससे वह घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं की अपनी महान् ऋद्धि सहित सामने आकर आपका नगर प्रवेश करवायेगा । राजा ने 'ऐसा ही हो' ऐसा कहकर स्वीकार किया । रानी राजमहल में गई और वहाँ नर सुन्दर को सिंहासन ऊपर बैठा हुआ देखा, अचानक आगमन देखकर विस्मय मन वाले उसने भी उचित सत्कारपूर्वक उससे सारा वृत्तान्त पूछा । उसने भी सारा वृत्तान्त कहकर कहा कि राजा अमुक स्थान पर विराजमान है, इससे वह शीघ्र सर्व ऋद्धिपूर्वक उसके सामने जाने लगा । इधर उस समय अवन्तीनाथ राजा भूख से अतीव पीड़ित हुआ । अतः खरबूजा खाने के लिए चोर के समान पिछले मार्ग से खरबूजे के खेत में प्रवेश किया । खेत के मनुष्यों ने देखा और निर्दयता से उस पर लकड़ी का मर्म स्थान पर प्रहार किया । कठोर प्रहार से बेहोश बना वह लकड़े के समान चेतन रहित मार्ग के मध्य भाग में जमीन के ऊपर गिरा। उस समय श्रेष्ठ विजय रथ में, नर सुन्दर राजा बैठकर उसे मिलने के लिए उस प्रदेश में पहुँचा, परन्तु चपल घोड़ों के खूर के प्रहार से उड़ती हुई धूल से आकाश अन्धकारमय बन गया और प्रकाश के अभाव में राजा के रथ की तीक्ष्ण चक्र के आरे ने अवन्तीनाथ के गले के दो विभाग कर दिये अर्थात् रथ के चक्र से राजा का सिर कट गया । फिर पूर्व में कहे अनुसार स्थान पर बहनोई को नहीं देखने से राजा ने यह वृत्तान्त बन्धुमति को सुनाया। भाई के संदेश को सुनकर 'हा,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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