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________________ २४३ श्री संवेगरंगशाला प्रकार कहा कि-हे भगवन्त ! क्या आप श्री से भी बड़े अन्य आचार्य हैं ? कि जिससे इस तरह आपने उनको देखकर खड़े हुये आदि विनय किया ? तब आर्य सुहस्ति सूरि ने कहा कि-हे भद्र ! इनका प्रारम्भ अति दुष्कर है, उस जैन कल्प का विच्छेद होने पर भी ये भगवन्त इस तरह उसका अभ्यास करते हैं। अनेकानेक उपसर्गों के समय भो निश्चल रहते हैं, फेंकने योग्य आहार पानी लेते हैं, हमेशा काउस्सग्ग ध्यानमें रहते हैं, एक धर्म ध्यान में ही स्थिर, अपने शरीर में भी मूळ रहित, और अपने शिष्यादि समुदाय की भी ममता बिना के वे शून्य घर अथवा शमशान आदि में विविध प्रकार के आसन्न-मुद्रा करते रहते हैं । इत्यादि जैन कल्प की तुलना करते, उनकी इस तरह गुण प्रशंसा करके और वसुभूति के स्वजनों को धर्म में स्थिर करके, श्री आर्य सुहस्ति सूरि उसके घर में से निकल गये । फिर सेठ ने अपने परिवार को कहा कि यदि किसी भी समय पर ऐसे साधु भिक्षा के लिये आयें तो उनको तुम आहार पानी आदि को निरूपयोगी कहकर आदरपूर्वक देना। इस प्रकार दान देने से बहुत फल मिलता है। इस तरह सेठ के कहने के बाद किसी दिन आर्य श्री महागिर जी भिक्षा के लिए वहाँ पधारे । वसुभूति की दी हुई शिक्षा के अनुसार निरूपयोगी अन्न पानी के प्रयोग से दान देने में तत्पर बने परिवार को देखकर, मेरूपर्वत के समान धीरता धारण करने वाले, महासत्त्व वाले श्री आर्य महागिरि ने द्रव्य, क्षेत्र आदि का उपयोग देकर 'यह कपट रचना है' ऐसा जानकर और भिक्षा लिये बिना वापिस चले गये। फिर श्री आर्य सुहस्ति सूरि को कहा कि-आहार दोषित क्यों किया? उन्होंने कहा कि-किसने किया? तब श्री आर्य महागिरि ने कहा कि-सेठ के घर मुझे आते देखकर 'खड़े हए' इत्यादि मेरा विनय करने से तुमने मेरा आहार दूषित किया। फिर उन दोनों ने साथ ही विहार करके अवन्ती नगरी में पधारे और वहाँ जीवत स्वामी जैन प्रतिमा को वन्दना कर आचार्य श्री महागिरि जी वहाँ से विहार करके गजान पदगिरि की यात्रार्थ एलकाक्ष नगर की ओर गये । उस नगर का नाम एलकाक्ष जिस तरह पड़ा उसे कहते हैं। एलकाक्ष नगर का इतिहास :-पूर्व में इस नगर का नाम दशाणपुर था। वहाँ एक उत्तम श्राविका मिथ्या दृष्टि की पत्नी थी। जैन धर्म में निश्चल मन वाली, संध्या समय में पच्यक्खाण को करती देखकर उसे उसके पति ने अपमानपूर्वक कहा कि हे भोली ! क्या कोई मनुष्य रात में करता है कि जिससे तू इस तरह नित्य रात्री के अन्दर नियम करती है ? यदि इस तरह नहीं खाने की वस्तु का भी पच्यक्खाण करने से कोई लाभ होता है तो कहा कि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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