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________________ २४२ श्री संवेगरंगशाला समय में श्रेष्ठ चारों अनुयोग का धारण करने वाले अनुयोगाचार्य हये । काम की शक्ति को चकनाचूर करने वाले उस महात्मा ने पूर्व परिचित उपकोशा वेश्या के घर में चातुर्मास किया। ऐसा अति आश्चर्यकारी उनका चारित्र सुनकर आज भी कौन आनन्द से विभोर रोमांचित से व्याप्त शरीर वाला नहीं होता है ? उस उपकोशा के घर में रहकर उन्होंने ऐसा अपना परिचय दिया कि वही धीर है कि विकार का निमित्त होते हुए भी जिसका मन विकार वाला नहीं बना। सिंह गुफा के द्वार पर काउस्सग्ग करने वाले आदि उत्तम चार मुनियों में गुरू ने जिसकी 'अतिदुष्कर दुष्करकारी' ऐसा कहकर प्रशंसा की। उसके निर्मल शीलगुण से आनन्दित मन वाले उपकोशा ने भी राजा ने सौंपे हुए पति-रथकार के समक्ष अपनी भक्तिपूर्वक उसकी प्रशंसा की कि-आमों का गुच्छा तोड़ना कोई दुष्कर कार्य नहीं है, और न सरसों पर नाचना भी दुष्कर है। महादुष्कर तो वह है कि जिस महानुभाव स्थूलिभद्र मुनि ने स्त्रियों के अटवी में भी अमूछित रहे। इस तरह शरद पूर्णिमा के चन्द्र समान निर्मल यशरूपी लक्ष्मी से जगत की शोभा बढ़ाने वाले उस स्थूलिभद्र महामुनि के श्री आर्य महागिरि तथा श्री आर्य सुहस्ति दो शिष्य थे। वे भी वैसे ही निर्मल गुणरूपी मणियों के निधान, काम के विजेता, भव्य जीवरूपी कुमुद विकसित करने में तेजस्वी चन्द्र के बिम्ब समान, चरण-करण आदि सर्व अनुयोग के समर्थ अभ्यासी, बढ़ते हुये मिथ्यात्व रूपी गाढ़ फैले हुए अन्धकार को नाश करने वाले, शुद्ध गुण रत्नों की खान रूप सूरि पद की प्राप्ति से विस्तृत प्रगट प्रभाव वाले और तीन भवन के लोगों से वंदित चरण वाले दोनों आचार्य भगवन्तों ने चिरकाल तक पृथ्वी तल के ऊपर विहार किया। फिर शिष्य प्रशिष्यादि को भी विधिपूर्वक सकल सूत्र अर्थ का अध्ययन करवाकर श्री आर्य महागिरि जी अपने गण-समुदाय को श्री सुहस्ति सूरि को सौंपकर 'जैन कल्प का विच्छेद हुआ है।' ऐसा जानते हुए भी उसके अनुरूप अभ्यास करते वे गच्छ की निश्रा में विचरते थे। ____ एक समय विहार करते वे महात्मा पाटलीपुत्र नाम के श्रेष्ठ नगर में पधारे, और योग्य समय में उपयोगपूर्वक भिक्षा लेने के लिए नगर में प्रवेश किया। इधर उसी नगर में रहने वाला वसुभूति सेठ स्वजनों को बोध कराने के लिये श्री आर्य सहस्ति सरिजी को अपने घर ले गया। आर्य सुहस्ति सूरि ने प्रतिबोध करने के लिए धर्म कथा का प्रारम्भ किया, और उस प्रसंग पर श्री आर्य महागिरि जी भिक्षा के लिए वहाँ पधारे। उनको देखकर महात्मा श्री आर्य सुहस्ति सूरि भावपूर्वक खड़े हुये । इससे विस्मित मन वाले वसुभूति सेठ ने इस
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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