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________________ २१४ श्री संवेगरंगशाला को भोगकर वर्तमान में मरता है, और पुनः कोई उसी कर्मदल को उसी तरह भोगकर मरता है उस मृत्यु को २-अवधि मरण कहते हैं। नरकादि भवों में निमित्त भूत आयुष्य के समूह को भोगकर मरेगा, अथवा मरे हुए पूनः कभी भी उस दल को उसी तरह अनुभव करके नहीं मरता उसे ३-अन्तिय अथवा आत्यंतिक मरण जानना। संयम योग से थके हुये भी उसी स्थिति में ही जो मरता है वह ४-बलाय मरण है, और इन्द्रियों के विषयों के वश पड़ा हुआ जो उस विषयों के कारण मरता है वह ५-वशात मरण जानना । लज्जा से, अभिमान से अथवा बहुत श्रुतज्ञान होने के मद से जो अपने दुश्चरित्र को गुरू समक्ष नहीं कहते वे निश्चित आराधक नहीं होते हैं, ऐसे गारवरूप कीचड़ में फंसे हुये जो अपने अतिचारों को दूसरों के समक्ष नहीं कहते वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र अन्तर में शल्य वा ना होने से उसका ६-अन्तःशल्य (सशल्य) मरण होता है। इस सशल्य के मरण से मरकर जीव महाभयंकर दुस्तर और दीर्घ संसार अटवी में दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है। मनुष्य अथवा तिर्यंच भव के प्रायोग्य आयुष्य को बाँधकर उसी के लिए मरते तिर्यंच या मनुष्य की मृत्यु अर्थात् अनन्तर जन्म में उसी ही तरह जन्म प्राप्त करने के लिए मरना, उसे ७-तद्भव मरण कहते हैं । अकर्म भूमि के मनुष्य तिथंच, देव और नारकियों के सिवाय शेष जीवों में तद्भव मरण कई बार होता है, इन सात में अविधि बिना के आवीचि, आयंतिय, बलाय, वशात और अन्तःशल्य पाँच ही मरण हैं, क्योंकि शेष अवधि और कहेंगे, बाल मरण आदि को तद्भव मरण के अन्तर्गत जानना। तप, नियम, संयम आदि बिना अविरति वाले की मृत्यु वह ८-बाल मरण है। यम नियम आदि सर्व विरति युक्त विरति वाला भी मृत्यु वह ६-पण्डित मरण, और देश विरति धारणा करने वाले की मृत्यु वह १०-बाल पण्डित मरण जानना। मनः पर्यव, अवधि, श्रुत और मति ज्ञान वाला जो छद्मस्थ श्रमण मरता है वह ११-छद्मस्थ मरण है और केवल ज्ञान प्राप्त कर मृत्यु होनी वह १२-केवली मरण जानना। गृध्रादि के भक्षण द्वारा मरना वह १३-गृध्रपृष्ठ मरण है, और फाँसी आदि से मरना वह १४-वेहायस मरण है। यह दोनों मृत्यु भी विशेष कारणों से अनुज्ञा दी है, क्योंकि आगाढ़ उपसर्ग में सर्व किसी तरह पार न उतरे, ऐसे दुष्काल में या किसी विशेष कार्य के समय में कृत योगी -ज्ञानी मुनि को अविधि से किया हआ मरण भी शुद्ध माना गया है। इसीलिए ही जयसुन्दर और सोमदत्त नामक दो श्रेष्ठ मुनियों ने वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार किया था। वह इस प्रकार है
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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