SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला २१३ के लिए उद्यत हुए इन अज्ञानी पुरुषों के प्रति किसी तरह अल्प भी द्वेष नहीं रखना है, क्योंकि “सर्व प्राणी वर्ग अपने पूर्वकृत कर्मों के विपाक रूप फल को प्राप्त करता है, अपकारों में या उपकारों में दूसरा तो केवल निमित्त मात्र होता है ।" हे जीवात्मा ! यदि फिर भी तुझे तीक्ष्ण दुःखों की परम्परा को सहन करनी है, तो सद्ज्ञान, रूप, मित्र आदि से युक्त तुझे अभी ही सहन करना श्रेष्ठ है । यदि ! ब्रह्मदत्त नामक बलवान चक्रवर्ती को भी केवल एक पशुपालक गड़रिये ने नेत्र फोड़कर दुःख दिया था । यदि तीन लोकरूपी रंग मंडप में असाधारण मल्ल प्रभु श्री महावीर परमात्मा अरिहंत होते हुये भी अति घोर उपसर्गों की परम्परा प्राप्त की थी, अथवा यदि श्रीकृष्ण वासुदेव की स्वजनों का नाश आदि पैर बिधना तक के अति दुःसह तीक्ष्ण दुःखों को प्राप्त किया था । तो हे जीव ! तू अपकार करने वालों के प्रति थोड़ा भी द्वेष नहीं करना, और जो तेरे आधीन प्रशम सुख है, उसमें क्यों नहीं रमण करता ? यदि तूने उपाधि समुदाय और गुरूकुल वास के राग को भी सर्वथा त्याग किया है, तो स्वयं नाशवान, असार शरीर में मोह किसलिए करना ? इस तरह धर्म ध्यान में मग्न उस महात्मा को उन्होंने तलवार की तीक्ष्ण धार से प्रहार कर मार दिया । महामुनि मरकर सवार्थ सिद्धि में देव उत्पन्न हुए । इस तरह पूर्व में जो कहा है कि 'त्यागी और निर्मम साधु लीलामात्र में प्रस्तुत प्रयोजन मोक्षादि को प्राप्त करते हैं' वह यहाँ बतलाया । इस तरह मन भ्रमर को वश करने के लिए मालती के माला समान और आराधना रूप संवेगशाला के मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार में कहे हुए पन्द्रह अन्तर द्वार वाला क्रमशः त्याग नाम का यह दसवाँ अन्तर द्वार कहा है । ---- ग्यारहवाँ मरण विभक्ति द्वार : - पूर्व में जो सर्व त्याग वर्णन किया है, वह मृत्यु के समय में सम्भव हो सकता है, इसलिए अब मैं मरण विभक्ति द्वार को कहता हूँ । उसमें – (१) आवीची मरण, (२) अवधि मरण, (३) आत्यंतिक ( अन्तिय) मरण, ( ४ ) बलाय मरण, (५) वशार्त्त मरण, (६) अन्तः शल्य ( सशल्य) मरण, (७) तद्भव मरण, (८) बाल मरण, (६) पण्डित मरण, (१०) बाल पण्डित मरण, (११) छद्मस्थ मरण, (१२) केवली मरण, (१३) वेहायस मरण, (१४) गृध्रपृष्ठ मरण, (१५) भक्त परिक्षा मरण, (१६) इंगिनी मरण, और ( १७ ) पादपोप गमन मरण । इस तरह गुण से महान गुरूदेवों ने मरण के सत्तरह विधि-भेद कहे हैं । अब उसका स्वरूप अनुक्रम से कहता हूँ । प्रति समय आयुष्य कर्म के समूह का जो निर्जरा हो उसे १ - आवीची मरण कहते हैं । नरक आदि जन्मों का निमित्त भूत आयुष्य कर्म के जो दल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy