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________________ १६७ श्री संवेगरंगशाला ऐसा कौन बुद्धिमान होगा कि जो सुवर्ण का गाढ़ अर्थी होने पर भी सुवर्ण के गुण बिना की भी वस्तु को 'यह सुवर्ण है' ऐसा मानेगा ? असुवर्ण होने पर भी मनुष्य सुवर्ण मानकर स्वीकार करने पर अन्य सुवर्ण का प्रयोजन साधने में समर्थ हो सकता है । देव का देवत्व राग, द्वेष और मोह के अभाव के कारण होता है और वह रागादि अभाव उनका चरित्र, आगम और प्रतिमा को देखकर जान सकते हैं । विश्व में गुरू का गुरूत्व भी मुक्ति साधक गुण समूह का जीव है, उसका गौरवता प्राप्त करते हैं और शास्त्रार्थ का सम्यक् उपदेश देते हैं वही यथार्थ और प्रशंसनीय बनते हैं । इस तरह अपने-अपने लक्षण से देव गुरू का स्वरूप को स्पष्ट रूप में दिखने वाले मेरे हैं, उनके कहे हुए तत्त्वों को स्वीकार करना वह दर्शन प्रतिमा है, गुणों से श्रेष्ठ दुर्लभ द्रव्यों द्वारा सात क्षेत्र और चतुर्विध श्री संघ आदि दर्शन के अंगों का शक्ति अनुसार प्रकृष्ट गौरव बढ़ने द्वारा द्रव्य से शुद्ध होती है ! और सर्व क्षेत्रों में रहे हुए कमजोर और श्रेष्ठ के विभागपूर्वक सर्व देव और गुरूओं की विनयादि सेवा मुझे भाव से ही करनी है उसके द्वारा यह दर्शन प्रतिमा क्षेत्र से मेरा विशुद्ध हो ! यह सम्यक्त्व का जावज्जीव तक निरतिचार पालन करते वह काल विशुद्ध हो, और जब तक मैं दृढ़ शरीर से सशक्त और प्रसन्न हूँ तब तक भाव विशुद्ध हो ! अथवा शाकिनी, ग्रह आदि के दोष से मैं चेतन रहित अथवा उन्माद से व्याप्त चित्त वाला न बनूं तब तक यह प्रतिमा भाव विशुद्ध हो ! अधिक क्या ? जब तक मेरा दर्शन प्रतिमा का परिणाम भाव किसी भी उपघातवश नाश न हो वहाँ तक मेरी यह दर्शन प्रतिमा भाव विशुद्ध रहे। आज से मैं शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, अन्य दर्शन का तथा उसके शास्त्रों का परिचय तथा प्रशंसा ये पाँचों दोषों को जावज्जीवन तक त्याग करता हूँ । राजा, लोग समूह और किसी देव का बलजबरी ( बलात्कार) हो, चोरादि बलवान का आक्रमण हो, आजीविका की मुश्किल हो और माता-पिता आदि पूज्यों का आग्रह हो, ये पाँच अभियोग मेरे इस प्रतिमा में आगार हैं । इस तरह प्रतिमा का अभिग्रह स्वीकार करने से सुन्दर श्रावक को भी, गुरू को भी उत्साहित करता है कि तू पुण्यकारक है, तू धन्य है, क्योंकि विश्व में जो धन्य हैं उन्हीं को नमस्कार हो ! वही चिरंजीव है और वही पण्डित है कि जो इस श्रेष्ठ सम्यक्त्व रत्न का निरतिचार पालन करता है । यह सम्यक्त्व ही निश्चय सर्व कल्याण का तथा गुण समूह का श्रेष्ठ मूल है, इस समकित बिना की क्रिया ईख के पुष्प के समान निष्फल है । और क्रिया को भी करने वाला स्वजन धन भोग को छोड़ने वाला, आगे बढ़कर दुःखों को भोगने वाला, सत्त्वशाली भी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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