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श्री संवेगरंगशाला
सम्यग्दर्शन की सविशेष प्राप्ति में मुख्य होने से श्रावक को प्रथम दर्शन प्रतिमा बतलाई है। फिर प्रश्न करते हैं कि-निसर्ग से या अधिगम से भी प्रगट हुआ शुभ बोध वाला जो आत्मा 'मिथ्यात्व यह देव, गुरू और तत्व के विषय में महान भ्रम को उत्पन्न करने वाला है।' ऐसा समझकर उसका त्याग करे और सम्यक्त्व को स्वीकार करे, उसे उसका स्वीकार करने का क्रम विधि क्या है ? इसका उत्तर- वह महात्मा दर्शन, ज्ञान आदि गुण रत्नों के रोहणाचल तुल्य सद्गुरू को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके कहे कि हे भगवन्त ! मैं आप श्री के पास जावज्जीव तक मिथ्यात्व का मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदन का पच्यक्खान (त्याग) करके जावज्जीव तक संसार से सम्पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने में एक कल्पवृक्ष तुल्य सम्यक्त्व को सम्यक्रूप स्वीकार करता हूं। आज से जब तक जीता रहूँगा तब तक भी सम्यक्त्व में रहते मुझे परम भक्तिपूर्वक ऐसा भाव प्राप्त हो। आज से अन्तर के कर्मरूप (शत्रुओं) को जीतने से जो अरिहंत बने हैं वे ही देव बुद्धि से मेरे देव हैं, मोक्ष साधक गुणों की साधना से जो साध हैं वे ही मेरे गुरू हैं और निवृत्ति नगरी के प्रस्थान में निर्दोष पगडंडी जो श्री जैनेश्वर प्रभु कथित जीव-अजीवादि तत्त्वोमय आगम ग्रन्थ हैं उसी में ही मुझे उपादयरूप श्रद्धा हो! और उत्तम समाधि वाली, मन, वचन, काया की वृत्ति वाला मेरा प्रतिदिन तीनों संध्या के उचित पूजापूर्वक श्री जैनेश्वर भगवान को वन्दन हो और धर्म बुद्धि से मुझे लौकिक तीर्थों में स्नानदान या पिंडप्रदान आदि कुछ भी करना नहीं कल्पता, तथा अग्नि हवन, यज्ञ क्रिया, रहट आदि सहित हल का दान, संक्रान्ति दान, ग्रहण दान और कन्या फल सम्बन्धी कन्यादान, छोटे बछड़े की विवाह करना तथा तिल, गुड़ या सुवर्ण की गाय बनाकर दान देना अथवा रुई का दान, प्याऊ का दान, पृथ्वी दान, किसी भी धातु का दान, इत्यादि दान तथा धर्मबुद्धि से अन्य भी दान मैं नहीं दूंगा । क्योंकि अधर्म में भी धर्मबुद्धि को करने से सम्यक्त्व प्राप्त किए को भी नाश करता है । सूत्र में जो बुद्धि के अविप्रर्यास-शुद्धि को समकित कहा है। वह भी पूर्व में कहे उन कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले किस तरह योग्य हैं ? आज से मुझे मिथ्यादर्शनों में रागी देवों के देव और साधुओं को गुरू मानकर धर्मबुद्धि से उनका सत्कार, विनय, सेवा, भक्ति आदि करना योग्य नहीं है। उनके प्रति मुझे अल्प भी द्वेष नहीं है, और अल्प भक्ति भी नहीं है, परन्तु उनमें देव और गुरू के गुणों का अभाव होने से उदासीनता ही है।