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________________ १६२ श्री संवेगरंगशाला 'अरे ! पापिनी ! मैं घर से जाता हूँ, तब तू ऐसे भाटों का पोषण करती है।' ऐसा पत्नी का तिरस्कार कर क्षोमिल को 'यह अनार्य कार्य को करने वाला व्यभिचारी है' ऐसा राजपुरुषों को बतलाकर उनको सौंप दिया। उसके बाद उन्होंने राजा को निवेदन किया कि 'यह जार है' इससे राजा ने भय से काँपते शरीर वाले और उदास मुख वाले उसे वध करने का आदेश दिया। फिर अति जोर-जोर से रोते उसे राजपुरुष वध स्थान पर ले गये और कहा कि अब तू अपने इष्ट देव का स्मरण कर । ऐसा कहकर भय के वश टूटे-फूटे शब्दों से कुछ बोलते उसे एक वृक्ष के साथ लम्बी रस्सी से लटका दिया। फिर जीव जाने के पहले ही किसी भाग्य योग से वह बँधी हुई रस्सी टूट गई और वह उसी समय नीचे गिर पड़ा। फिर कुछ क्षण में ही वन की ठण्डी हवा से आश्वासन प्राप्त करते मृत्यु के भयंकर भय से व्याकुल बना वह वहाँ से जल्दी भागा। जब वह शीघ्रमेव भागते कुछ दूर निकल गया तब वहाँ महान् ताल वृक्ष के नीचे श्रेष्ठ वीणा और बांसुरी को भी जीतने वाली मधुर वाणी से स्वाध्याय करते और उनके श्रवण से आकर्षण हुए, हिरण के समूह से सेवित चरण कमल वाले एक मुनि को देखा । इससे अद्भुत आश्चर्यजनक उस मुनि को वन्दन करके उस भूमि पर बैठा और मुनि ने भी 'यह योग्य है' ऐसा मानकर कहा कि-हे देवानु प्रिय ! अनादि संसार में परिभ्रमण करते जीवों को कोई भी इच्छित अर्थ सिद्ध नहीं होता है, परन्तु यदि किसी भी रूप में वह श्री जैनेश्वर भगवान प्रति भक्ति, जीवों के प्रति मैत्री, गुरू के उपदेश में तृप्ति या तत्परता, सदाचार गुण से युक्त महात्माओं के प्रति प्रीति; धर्म श्रवण में बुद्धि, परोपकार में धन और परलोक के कार्यों की चिन्ता में मन को जोड़ दे तो निरूपम पुण्य वाला उनका जन्म धर्म प्रधान बनता है। दुर्लभ मनुष्य जीवन मिलने पर भी धर्म गुण रहित मनुष्य के जो दिन जाते हैं वह दिन निष्फल जाते हैं ऐसा समझ । जिन्होंने जन्म से ही इस तरह जन्म को धर्म गुण रहित निष्फल गँवाया है, उनको तो जन्म नहीं लेना वही श्रेष्ठ है अथवा जन्म लेने पर भी जंगल में पशु रूप में जीवन व्यतीत करे वही श्रेष्ठ है। जो महानुभाव का भावी कल्याण नजदीक में ही होता है उन्हीं का ही दिन धर्म प्रवृत्ति से प्रधान होता है । वही धन्य है, वही पुण्य का भागीदार है और उसी का जीवन सफल है कि धर्म में उद्यमशील वाले हैं, जिनकी बुद्धि पापों में क्रीड़ा नहीं करती है। इस तरह मुनि की बात सुनकर अपने खराब चरित्र से वैरागी बनकर क्षोमिल ने शुद्ध भाव से दीक्षा स्वीकार कर ली।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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