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________________ १२४ श्री संवेगरंगशाला लिए स्वजनों ने उसके पुत्र वसुदेव को राजा को दिखाया, परन्तु वह छोटा और पढ़ा हुआ नहीं होने से राजा ने उसका निषेध किया और उसके स्थान पर अन्य ब्राह्मण को स्थापन किया। फिर अपना पराभव होता जानकर अत्यन्त खेद से संताप करते वह वसुदत्त पढ़ने के लिए घर से निकल गया । 'पाटलीपुत्र नगर विविध विद्या के विद्वानों वालों श्रेष्ठ विद्या क्षेत्र है ।' ऐसा लोगों के मुख से सुनकर वह वहाँ गया और कालक्रम से सर्व विद्याओं को पढ़कर फिर इच्छित कार्य की सिद्धि वाला वह अपने नगर में वापिस आया, उसके विद्या से राजा प्रसन्न हुआ और पिता की आजीविका उसे दी, वह अपने विद्या के बल से राजा और नगर के सर्व लोगों का माननीय बना । राजा के सन्मान से, ऐश्वर्य से और श्रुतमद से जगत को भी तृणवत् मानता वह वहाँ काल व्यतीत करने लगा । इस ऐश्वर्य आदि एक के बल से भी अधीर पुरुषों का मन चंचल बनता है तो कुल, बल, विद्या आदि सर्व का समूह एकत्रित हो जाये तो उससे क्या नहीं होता है ? प्रलयकाल के समुद्र के तरंगों के समूह को रोकने में पार प्राप्त कर सकते हैं परन्तु ऐश्वर्य आदि के महामद के आधीन बने मन को थोड़ा भी रोकना अशक्य है । इस तरह उन्मत्त मन वाले उसको उसके मित्रों ने कुतूहल से एक रात्री में नट का नाटक देखने को कहा - हे मित्र ! चलो, हम जाकर क्षण भर नट का नाटक देखें, क्योंकि देखने योग्य देखने से आँखों का होना सफल होता है, उनकी इच्छानुसार वह वहाँ गया और एक क्षण बैठा । उस समय वहाँ एक कोई युवती किसी भाट के साथ इस तरह बोलते सुना - हे सुभग ! तेरे दर्शनरूपी अमृत मिलने से आज कपट पण्डित और घर में बन्द कर रखने वाले मेरे पति से मुझे मुक्ति मिली है । हे नाटक के प्रथम पात्र । तेरा जीवन दीर्घ अखण्ड बने क्योंकि, तूने क्रोध के समुद्र मेरे पति को यहां व्यग्र किया है, इसलिए हे सुभग ! आओ, जब तक यह कूट पण्डित यहाँ समय व्यतीत करता है तब तक क्षणभर क्रीड़ा करके अपने-अपने घर जायें । इस तरह उनकी स्नेहयुक्त वाणी सुनकर गलत विकल्प करने रूप कथन से प्रेरित उस वसुदत्त ने विचार किया कि- मैं मानता हूँ कि निश्चय ही यह मेरी पत्नी है, यह पापिनी परपुरुष के संग क्रीड़ा करती है और मुझे उद्देश्य से कुट पण्डित करती है, पहले भी मैंने उसके लक्षणों से दुराचारिणी मानी थी और अब प्रत्यक्ष ही देखा, इससे इसको शिक्षा देनी चाहिये । ऐसा विचार कर वह वसुदत्त उसको मारने के लिये चला । इतने में तो स्वच्छन्द आचरण करने वाली वह युवती कहीं जाती रही। फिर 'मैं मानता हूँ कि मुझे आते देखकर वह पापिनी शीघ्र घर गई होगी' ऐसा बुद्धि विचार -
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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