SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला आसेवन शिक्षा का वर्णन-इस आसेवन शिक्षा के बिना जंगल में उत्पन्न हुये मालती के पुष्पों के समान और विधवा के रूप आदि गुण समूह के समान ग्रहण शिक्षा निष्फल होती है। और मन, वचन, काया के तीन योग से आसेवन शिक्षा-क्रिया को सम्यग् रूप आचरण करने वाले को ही ग्रहण शिक्षा ज्ञान प्रकट होता है अन्यथा प्रकट नहीं होता है । उसे प्रगट होने के कारण यह है कि-गुरु चरणों की सेवा कर प्रसन्न करने से, सभी व्याक्षेप त्याग करने के प्रयत्न से, और शुश्रूषा, प्रतिपृच्छा आदि बुद्धि के आठ गुणों के प्रयोग करने से बहु, बहतर और बहुतम बोध होने द्वारा ग्रहण शिक्षा परम उत्कृष्टता प्राप्त करता है अन्यथा श्रीमाली आदि के समान निश्चय ही उत्कृष्टता को नहीं प्राप्त करता । अर्थात ज्ञान पढ़ने के लिए भी विनय आदि क्रियारूप आसेवन शिक्षा पहले ही करना होता है, और ग्रहण शिक्षा पढ़ने के बाद भी क्षण-क्षण मन, वचन, काया की क्रिया से उसका आसेवन किया जाता है तभी वह ज्ञान बढ़ता है और स्थिर होता है । इसलिए यदि आसेवन शिक्षा हो तभी उसके प्रभाव से भव्य जीवों को न्यूनता होने पर ग्रहण शिक्षा प्राप्त होती है और आसेवन शिक्षा न हो तो विद्यावान ग्रहण शिक्षा नाश होती है, इस प्रकार सर्व सुख की सिद्धि में बुनियाद रूप और संसार वृक्ष को नाश करने के लिए अग्नि समान उसी एक आसेवन शिक्षा को नमस्कार हो! इस विषय में क्रियानय का मत इस प्रकार है कि-जो कार्य का अर्थी हो उसे सर्व प्रकार से नित्यमेव क्रिया में ही सम्यग् उद्यम करना चाहिये । वह इस प्रकार से :-हेय-उपादेय अर्थों को जाकर उभय लोक के फल की सिद्धि की चाहने वाले बुद्धिमान को यत्नपूर्वक प्रयत्न ही करना चाहिये। क्योंकि-प्रवृत्ति रूप प्रयत्न बिना ज्ञानी को भी इस संसार में अभिलषित वस्तु की सिद्धि होती नहीं दिखती है, इसीलिए अन्य मत वाले भी कहते हैं कि 'क्रिया ही फलदायी है, ज्ञान नहीं है।' संयम अर्थ और विषयों का अति निपूण विज्ञाता ज्ञानी भी ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता है। प्यासा भी पानी आदि को देखकर भी जब तक उसे पीने आदि की क्रिया में प्रवृत्ति नहीं करता तब तक उसे तृप्ति रूप फल नहीं मिलता है । सन्मुख इष्ट रस का भोजन पड़ा है। स्वयं पास बैठा हो परन्तु हाथ को नहीं चलाए तो ज्ञानी भी भूख से मर जाता है। अति पंडित भी वादी प्रतिवादी को तुच्छ मानकर वाद के लिए राजसभा में गया हो, यदि वहाँ कुछ नहीं बोले तो धन और प्रशंसा को नहीं प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार इस लोक के हित के लिए जो विधि कही है वही विधि जन्मान्तर के फलों को जानना, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy