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________________ श्री संवेगरंगशाला कोलाहल करते लोग गुप्त रूप में हंसने लगे। इस तरह कला रहित शेष इक्कीस राजपुत्रों ने भी जैसे-तैसे वाण फेंका, एक से भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ। इस कारण से लज्जा द्वारा आँखें बन्द हो गईं, वज्रमय इन्द्र धनुष्य से ताड़न किया गया हो इस तरह निस्तेज मुख वाला, निराश बना राजा शोक करने लगा। तव मन्त्री ने कहा-हे देव ! शोक को छोड़ दो, आपका ही दूसरा पुत्र है, इससे अब उसकी भी परीक्षा करो। राजा ने कहा-दूसरा पुत्र कौन है ? तब मन्त्री ने भोजपत्र दिया, उसे पढ़कर राजा बोला-इससे भी क्या प्रयोजन ? बहुत पढ़े हुए भी यह पापियों के समान कार्य को सिद्ध नहीं कर सके, उसी तरह वह भी वैसे ही करेगा, ऐसे पूत्रों द्वारा मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो! ऐसा होते हये भी यदि तेरा आग्रह हो तो उस पुत्र की योग्यता को भी जान लो। इससे मन्त्री ने उपाध्याय सहित सुरेन्द्रदत्त को बुलाया, उसके बाद शस्त्र विद्या के परिश्रम से शरीर में आंट वाले उसे गोद में बैठाकर प्रसन्न हुये राजा ने कहा-हे पुत्र ! राधावेध करके मेरी इच्छा को तू पूर्ण कर और निवृत्ति नाम की राजकन्या का विवाह कर राज्य को प्राप्त कर । तब राजा और अपने गुरु को नमन करके धीर सुरेन्द्रदत्त युद्ध के योग्य मुद्रा बनाकर धनुष्यदण्ड ग्रहण करके निर्मल तेल से भरे कण्ड में प्रतिबिम्बित हए चक्रों के छिद्रों को देखते, दूसरे राजकुमारों द्वारा तिरस्कार होते गुरु के द्वारा प्रेरणा करते अग्नियक आदि सहपाठी बच्चों से भी उपद्रव होते और 'यदि निशाना चूक जायेगा तो मार दूंगा' ऐसा बोलते खुली तलवार वाले पास दो पुरुषों से बारबार तिस्कार करते, फिर भी सर्व की उपेक्षा कर लक्ष्य सन्मुख स्थिर दृष्टि वाला और महा मुनिन्द्र के समान स्थिर मन वाले उसने चक्रों की चाल को निश्चित करके बाण से राधा का शीघ्र वेधन कर दिया, और राधा के वेधन से प्रसन्न बनी उस राजपूत्री ने उसके गले में वरमाला पहनाई, राजा को आनन्द हुआ, और सर्वत्र जय-जय शब्द उछलने लगे। राजा ने विवाह महोत्सव किया, और राज्य भी उसे दिया। इस तरह सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञान से गौरवता को प्राप्त किया। इस प्रकार ज्ञानमय के मत में इस जन्म और दूसरे जन्म के सुखदेने में सफल कारण है। इसलिए ग्रहण शिक्षा में ही ज्ञान अभ्यास में ही सदा उद्यम करना चाहिए। क्योंकि ग्रहण शिक्षा बिना का अनपढ़ मनुष्य क्रिया करने पर भी कला में अत्यन्त मूढ़ रहता है, श्रीमाल आदि राजपुत्रों के समान जनसमूह में आदर पात्र नहीं बनता है। इस प्रकार ग्रहण शिक्षा जानना । अब पूर्व में प्रस्तावित क्रिया कला रूप आसेवन शिक्षा कहते हैं।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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