SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - सन्मानः- मनकी प्रीत से विनयोपचार वह सन्मान | बोधिलाभ:- मुत्यु के बादमें जैन धर्म की प्राप्ति हो - वैसी भावसाधना उसे बोधिलाभ कहते हैं। ... निरुपसर्गः- निर्वाण की प्राप्ति वह निरुपसर्ग । इस प्रकार तथा प्रकार की द्रव्य सामग्री के त्यागी मुनि भगवन्तों को मुख्यता से भाव पूजा होती है। फिरभी कायोत्सर्गादि के द्वारा द्रव्यपूजा के फल की प्राप्ति की क्रिया मुनिभाव से विरुद्ध नहीं है। उनके पास द्रव्य का अभाव है, इसलिए वे गृहस्थों की तरह द्रव्यपूजा नही कर सकते । उस प्रकार करने से उनके त्याग में अनेक बाधाएँ आती है , फिरभी जिनालय जाना, वंदन, नमस्कार, स्तुति, द्रव्यपूजा का उपदेश, प्रभु के स्नात्रादि महोत्सव में जाना प्रभुका वरघोड़ा, पूजा पढाना, प्रतिष्ठा विगेरे में वासक्षेप से पूजा करना आदि अनेक रूप में द्रव्य पूजा का समावेश होता है। मात्र प्रकार भेद है । __ यदि मुनि भगवंतो को मात्र भाव पूजा का ही अधिकार होता तो उपाश्रय में बैठ ध्यानद्वारा भावपूजा करते, लेकिन उपरोक्त विधानों में वो भाग नही लेते । जिस प्रकार गुरुका - द्रव्य व भाव दोनों प्रकार का विनय किया जाता है। अंतरंग भक्तिद्धारा भाव विनय और सेवा - सुश्रुषा व आहारादिक और वैयावृत्य दारा द्रव्य विनय होता है। उसी तरह तीर्थंकर परमात्मा का द्रव्य विनय मुनि भगवंतों के द्वारा मर्यादा के अनुसार किया जाना शास्त्र सम्मत ज्ञात होता है। वे द्रव्य पूजा का उपदेश दे सकते हैं। प्रेरणा दे सकते हैं । उसमें जोड़ सकते हैं। उसका विधान कर सकते हैं । पूजा परत्वे (द्रव्य पूजा परत्वे) विधिविधान समजा सकते हैं। इसलिए अनुमति भी द्रव्य पूजा है । द्रव्य पूजा के उपकरण रहित द्रव्य पूजा मुनिभगवन्तों को भी होती है। इस प्रकार सूक्ष्मद्रष्टि से समजना । उचित मर्यादा के अनुसार करनी हो और न करे तो प्रायश्चित लेने पड़ते हैं। मुनिओं को भी.देव आत्मोत्कर्ष में प्रबल और मुख्य निमित्त होते हैं। देव के विना धर्म या शासन नहीं हैं । शासन देवों को उत्साहित करने के लिए कायोत्सर्ग एक मुख्य निमित्त है। और चैत्यवंदन करनेवाला 65)
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy