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________________ यहाँ मुनि विना ३ वंदनीय और १ स्मरणीय ये ४, बारहवें अधिकार में अंतर्गत हो जाते हैं । यथा १-६-९-१०-११ वां इन पांच अधिकारों में भाव जिनको, ३-५-इन दो अधिकारों में स्थापना जिनको, सातवें अधिकार में श्रुतज्ञान को, आठवें अधिकार में सिध्ध को, दूसरा में द्रव्य जिन को, और चौथे में नाम जिनको वंदना की गयी है। तथा बारहवें अधिकार में शासन देवताओं का स्मरण किया गया है । इस प्रकार श्री प्रवचन सारोद्धार में कहा है। जिससे १-२-३-४-५-६-९-१०-११ इन ९ अधिकारों में जिनवंदना, सातवें में श्रुतवंदन ८ वें में सिध्धवंदना और १२ वें में देवो का स्मरण है। मुनिवंदन १२ अधिकारों में नहीं है। जिससे ये १२ अधिकार सम्यग्दर्शन गुण प्रधान ज्ञातव्य होते हैं । लेकिन प्रत्येक चैत्यवंदना में या देववंदन में जावंत केवि होता ही है । प्रतिक्रमणादि में भगवानहं और अड्ढाइज्जेसु भी होता है। याने मुनिवंदन तो जुड़ा हुआ ही है । करनेवाले की यहाँ प्रधानता है। जिस तरह स्तंभन करने लायक व्यक्ति को मालुम नही होता है, फिरभी स्तंभन विद्या के मंत्रोच्चार से उसका स्तंभन होता है। वैसे ही शासन सेवकों के लिए अज्ञात भावसे भी कायोत्सर्ग किया जाता है, तो भी उसमें शासनसेवा की जागृति उत्पन्न होती है । इस बात का स्पष्टिकरण दर्शाति चूर्णि में निम्न गाथा दी है । तेसिम-विज्ञाणे विहु तन्विस उसग्गओ होई। विग्य-जय-पुन-बंधा-55 इ कारणं मंत-नाएण ||२|| अर्थ :- उनको ज्ञात न हो, फिर भी उनसे संबंधित कायोत्सर्ग से फल मिलता है। विघ्नों पर जय, पुण्यबंध विगेरे का कारण मंत्र के द्रष्टांत से जानना । ललित विस्तारावृत्ति में भी कहा है :- तदपरिक्षानेऽप्यस्माच्छु ये सिध्धया विध्धमेव वचनं क्षापकम् अर्थः- उनके मालुम न हो, फिर भी इस (कायोत्सर्ग) से शुभ की सिध्धि में ये (वेयावच्चगराणं) वचन ही ज्ञापक है। ---- (59
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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