SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . इसलिए शास्त्र की आज्ञा और पूर्वपरंपरा का आचरण प्रस्ताव विगेरेसे निरपेक्ष होकर, जैन संघ संचालन या आचरण नहीं कर सकता ङ्गबहुमत से लोग किसी एक विचार के प्रति आकर्षित हुए हों, उसे बहुमत प्रधान मानकर संघ के आगेवान, शास्त्राज्ञा या पूर्व के आचरण से विरुद्ध चलें जाथे तो वे संघ व शासन के संचालन को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं, इन्ही बातों को ध्यान में रखकर जैन संघ के नियम और संचालन का तरीका गीतार्थ पुरुषों ने दर्शाया है, गीतार्थ पुरुषों के पास में भी आज तक के आचरण और प्रस्तावों का संग्रह होना चाहिये । इसके लिए कल्पसूत्र और नियुक्ति बिगेरे में पुष्कल प्रमाण हैं। संचालन करने वाले उत्तराधिकारी का कर्तव्य है कि, उसे अपना वहीवट पूर्व परंपरा | से चले आरहे वहीवट को बिना कारण बदलना नहीं चाहिये । संचालन कर्ता के मस्तक पर शासन के त्रैकालिक संचालन की जवाबदारी है । गीतार्थ महापुरुषही शासन के मुख्य संचालन करने वाले संचालक थे । आज भी गीतार्थ आचार्य ही शासन के, मुख्य संचालन करनेवाले संचालक होने चाहिये । श्रावक हिसाब किताब अवश्य संभालें लेकिन शासन का संपूर्ण संचालन गीतार्थ आचार्य भगवन्तो के हाथ में होना चाहिये । इसमें श्रावकों के बहुमत का आधार नहीं चलेगा । बहुमती एकमती, सर्वमती या सत्यमती, सभी जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा का पालन करने वाले शास्त्रोक्त, परंपरागत गीतार्थ पुरुषों की आज्ञा तुल्य, आज्ञामत के अनुसार होना चाहिये । व्यक्ति को अपने निजि कारण के अलावा व्यक्तिगत मत देने का अधिकार नहीं हैं । यदि संस्था के संचालन तरीके मत देना हो तो संस्था के प्रति वफादार और उसके हित व पुष्ट करने की जवाबदारी समजकर उसके अनुरुप मत देने का अधिकार है। अन्यथा नहीं । किसी मुख्य कारण से किसी कार्य प्रसंग को लेकर गीतार्थ पुरुष कोई आचरण करते हैं कि जिसमें हानि कम और लाभ अधिक हो, तो ऐसा आचरण सर्व को मान्य होना चाहिये । जिसमें लाभ का अंशमात्र न हो ऐसे आचरण का पालन नहीं करना चाहिये । उसकी बराबर परीक्षा करनी चाहिये।
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy