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इसके बाद वैयावच्चगराणं से लेकर संपूर्ण अन्नत्थ और इसके उपरान्त एक नवकार के काउस्सग्ग के अंतमें कही जानेवाली चौथी स्तुति तक का पाठ सम्यग्दृष्टि देवों के (वंदना के लिए नही ) स्मरण के लिए और उनके काउस्सग्ग के विषय में है। ये सभी बारहवें अधिकार में आता है । इति ॥ दादशमोऽधिकार॥
१. अर्थात् ये ९ अधिकार सूत्र सम्मत है, इसलिये चैत्यवंदना के 8 अधिकार वाले नमुत्थुणं आदि चैत्यवंदन सूत्रों की वृत्ति श्री हरिभद्रसूरि ने रची है। उस चैत्यवंदन वृत्तिका नाम ललित विस्तरा है । वहाँ सिध्धाणं की प्रथम तीन गाथा की वृत्ति के अन्तमें इएताः तिला स्तुतयो नियमेनोच्यन्ते, केचितु, अन्या अपि पठन्ति न च तत्र नियम इति न तद्व्याख्यान क्रिया (सिद्धाणं की तीन स्तुतियाँ - तीन गाथाएँ) नियम के आधार से अवश्य कही जाती है, इसलिए उनकी व्याख्या की है, और कितनेक आचार्य तो इन ३ के उपरान्त दूसरी (दो) स्तुतियाँ (उजितादि) कहते हैं । लेकिन इन दो स्तुतिओं को कहना ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । (इसलिए इनकी व्याख्या यहाँ पर नहीं की है) इस प्रकार कहा गया है, जिससे समज मे आजाता है कि ललित विस्तरा में व्याख्या कीये गये ९ अधिकार भी अवश्य पढ़ने योग्य हैं । वर्ना ऐसी व्याख्या नहीं करते ।
तथा शासन देवी-देवीकी चौथी स्तुति का १२ वा अधिकार भी वैयाबच्च गराणं आदि सूत्रसे व्याख्या कीया गया होने से चौथी स्तुति भी अवश्य बोलने योग्य हुई । जिससे कृतीन स्तुतिकी चैत्यवंदना कहना और ४ स्तुति अर्वाचीन - नयी है। इस प्रकार श्री पंचाशकजी की वृत्तिमें श्री अभयदेव सूरिजी ने अन्य आचार्यों के मतान्तर से ये बात कही है, उसका आलंबन लेकर चौथी स्तुति चैत्यवंदना में नहीं कहना इस प्रकार की प्ररुपणा करना उत्सूत्र प्ररुपणा है।
प्ररूपणा कर
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