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को घुमाकर वंदना करे उसे मत्स्यावर्त दोष कहते हैं। ये दोष भी मत्स्योदधृत दोष के अंतर्गत ही है। (यहाँ पर मत्स्य का 'उदधृत याने ऊंचे झंप मारना (उछलना ) और 'आवर्त याने शरीर को गोलाकार घुमाना - ऐसा शब्दार्थ है। ___ . मनः प्रदुष्ट दोष:- वंदनीय आचार्य किसी गुण से हीन हों तो उस हीन गुण को मनमें रखके असूया (अरुचि) पूर्वक वंदन करना उसे अथवाँ 'आत्म प्रत्यय और परप्रत्यय से उत्पन्न मनो द्वेष पूर्वक वंदन करना। ___१०. वेदिका बढ़ दोष:- दोनों जानु ऊपर (घुटणे के ऊपर) दोनों हाथ स्थापन कर अथवा दोनों जानु के नीचे हाथ स्थापन कर, अथवा जानु के आजु, बाजु में हाथ स्थापन कर, या दोनो हाथ गोदी में रखकर अथवा एक जानु को दो हाथों के बीच में रखकर वंदन करना । इस तरह ये पांचो ही प्रकार वेदिका बद्ध दोष के अंतर्गत है। (वेदिका हाथ की रचना उसके द्वारा बद्ध-युक्त उसे वेदिकाबद्ध दोष कहते है।)
११. भजन्त दोष:- ये गुरु मुझे चाहते है, मेरा अनुसरण करते हैं। तथा आगे भी मुझे अनुसरेंगे, इस आशय से वंदन करना । अथवा हे गुरुदेव हम आपको वंदन करने के लिए खड़े है, इस प्रकार बोलना।
१२. भय दोष:- यदि मैने वंदना नहीं की तो गुरु मुझे संघ से, कुल से, गच्छ से, अथवा क्षेत्र से बाहर कर देंगे। इस प्रकार के भय से वंदन करना, उसे भय दोष कहते है।
१३. मैत्री दोष:- आचार्य भगवन्त मेरे मित्र है, या आचार्य के साथ मेरी मित्रता होगी । इस हेतु से वंदन करना उसे मैत्री दोष कहते है।
१४. गौरव दोष:- सर्व मुनि समजें कि ये साधु वंदनादिक सामाचारी में अति निपुण है, इस प्रकार के गर्व से (मान से) आवर्त विगेरे वंदन विधि सही ढंग से करना । उसे गौरव दोष कहते हैं।
. कारण दोष:- ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ, इन तीन कारणो को छोड़कर अन्य वस्त्र-पात्र आदि के लाभके हेतु से वंदन करना। उसे कारण दोष कहते है। (यहाँ ज्ञानादिक लाभको यद्यपि कारण दोष में नहीं माना है, फिर भी जगत में पूजा-महत्वादि के लिए ज्ञानादि तीनो के लाभ की ईच्छा करना उसे भी कारण दोष में माना है) __. स्तेन दोष:- वंदन करने से मेरी लघुता होगी, इस आशय से गुप्त रीत से वंदन करना, अथवा कोई देख न ले इस प्रकार शिघ्रता से वंदन से वंदन कर लेना (स्तेन चोर, उसकी तरह) उसे स्तेन दोष कहते है। (१) गुरुने शिष्य को स्वयं को कहा हो तो आत्म प्रत्यय और शिष्य के मित्रादिक के सामने शिष्य की उपस्थिति में कहा हो तो पर प्रत्यय मनः दोष समजना
(प्रव० सारो० वृत्ति)
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