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'दृष्टि के सामने आजाय, उसके बाद उसके शिघ्र तीन (या-दो) 'वधूटक करके दाहिने हाथ की चार अंगुलियों के अंतरे में दबाना । इसी प्रकार तीन वधूटक वाली मुहपत्ति को बॉये हाथ की हथेली पर (हथेली को स्पर्श किये बिना) प्रथम तीन बार खंखेरते हुए कांडे तक लेकर जाना, और इसी प्रकार तीन बार आगे कहे जाणे वाले पक्खोडे करने के साथ उसे : अक्खोडा अथवा ९ आखोटक या ९ आस्फोटक कहते है। (उसमें ग्रहण करने समय खंखेरने की आवश्यकता नहीं) .
3. प्रमार्जना (पक्खोडा):- ऊपर कहे अनुसार प्रथम बार कांडे के तरफ चढते तीन अक्खोड़े करके नीचे उतरते समय हथेलीको मुहपत्ति का स्पर्श हो इस प्रकार तीन घसारे डाबी हथेली पर करना । उसे प्रथम ३ प्रमार्जना कही जाती है। (काडे के तरफ चढ़ते ३ : अखोड़े कर के) दूसरी बार ऊतरते ३ प्रमार्जना और इसी प्रकार (बीच में ३ अक्खोड़े कर । के) पुनः तीसरी बार ३ प्रमार्जन करना। उसे ९ प्रमार्जना, पक्खोड़े या प्रस्फोटक कहा जाता है। ऊपरोक्त : प्रस्फोटक इससे भिन्न समजना, कारण कि विशेषतः इसे ६ ऊर्ध्वप्रस्फोटक . अथवा ६ पुरिम कहा जाता है। लेकिन प्रसिद्धि में जो ९ पक्खोड़े गिने गये है वो तो ये ९. प्रमार्जना के नाम है। - ये ९ अक्खोड़े और ९ पक्खोड़े तिग तिग अंतरिया याने परस्पर तीन तीन के अंतर में होते है। वो इस प्रकार प्रथम हथेली तरफ चढते ३ अक्खोड़े करना । हथेली से उतरते ३ पक्खोड़े करना | उसके बाद पुनः ३ अक्खोडे पुनः ३ पक्खोडे, पुनः ३ अक्खोड़े ३ पक्खोड़े करना, इस प्रकार अनुक्रम से ९ अक्खोड़े और ९ पक्खोड़े परस्पर अंतरित गिने गये है।
अथवा अक्खोड़े के अंतर में पक्खोड़े इस प्रकार भी गिना गया है। (१) वधु याने स्त्री जिस प्रकार लज्जा से मुख पे वस्त्र लंबा रखती है, वैसे ही मुहपत्ति के तीन वलांक को चार 'अंगुलियों के अंतर में दबाकर नीचे की और झुलते-लंबी रखना उसे वधूटक कहते है। श्री प्रव० सारो वृत्ति । • में दो वधूटक करने के लिए भी कहागया है। लेकिन वो प्रचलित नहीं है। . (२) प्रव० सारो० वृत्ति तथा धर्म संग्रह वृत्ति में पक्खोड़े के अंतर में अक्खोई कहे गये है। फिर
भी अवखोड़े के अंतर में पक्खोड़े कहने में विरोधाभाष नहीं है। कारण कि प्रारंभ से गिने तो अक्खोड़े के अंतर में पक्खोडे, और अंत से गिनते है। तो पक्खोई के अंतर में अक्खोड़े और सामुदायिक गिनते हैं तो परस्पर अंतरित गिनेजाते हैं।