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________________ प्रवर्तक:- साधुओं को क्रिया कांऽ विगेरे में जोड़े (प्रवतवि) उसे प्रवर्तक कहते हैं। स्थविर:- मुनिमार्ग से दुःरवी साधु और पतित परिणाम वाले साधुओं को अथवा प्रवर्तक ने जिसमार्ग की प्रेरणा की हो उस मार्ग से पतित परिणामी साधुओं को उपदेशादि से पुनः उसी मार्ग में स्थिर करे उसे अथवा वृद्धावस्था वाले हों उन्हे स्थविर कहते है। । रात्निक :- 'पर्याय में बड़े हों उसे रात्निक या रत्नाधिक तथा (१) गणावच्छेदक भी कहते है। इन पांचो में आचार्यादि चार (२) दीक्षापर्याय में न्यून हों तो भी उनको दादशावर्त वंदन कर्म निर्जरा के लिए करना चाहिये। तथा इन पांच को क्रमानुसार वंदन करना चाहिये। कितनेक आचार्यों का कहना है कि “सर्व प्रथम आचार्य को, फिर 'रत्नाधिक अवस्था की योग्य मर्यादा अनुसार वंदन करनाअर्थात दीक्षापर्याय जिसका अधिक हो, उसे प्रथम वंदन करना चाहिये। (आव0 निवृत्ति) अवतरण:- वंदन किसको नही करना? किससे नहीं करवाना ? तत्संबध में ५ वां द्वार (चार से वंदन नहीं करवाना) व (४ के पास वंदन करवाना) ६ हा दार इस गाथा में कहा जा रहा है। , वां हा दार (कौन किसको वंदना करे न करे) माय-पिय-जिहभाया,-ओमावि तहेव सव्वरायणिए। किड़कम्म न कारिजा, चउ समणाई कुणंति पुणो ॥१४॥ शब्दार्थ:- ओम-उम्र मे छोटे, अवि=फिर भी अथवा, 'मातामह, पितामह, कारिजा=(वंदन) करवाना १. ज्ञानपर्याय, दीक्षापर्याय, और वयपर्याय ये तीन प्रकार के यथायोग्य पर्याय समजना २. आव० वृत्ति में गणा वच्छेदक को (गणी को) स्थविर समान गिना है। और भाष्य की अवचूरि में रत्नाधिक का ही दूसरा नाम गणावच्छेदक कहा है। वहाँ गच्छ के कार्य के लिए क्षेत्र उपधि आदि के लाभार्थ विचरनेवाले और सूत्र तथा अर्थ के ज्ञाता हों, उन्हे गणावच्छेदक कहा है। ३. रत्न अर्थात् दर्शन, ज्ञान चारित्र (इन तीन) में अधिक हो उसे, रत्नाधिक कहते है, लेकिन यहाँ चारित्र पर्याय में ज्येष्ट हो उसे रत्नाधिक जाणना । कहा है, इस प्रकार मुख्य अर्थ होने से रत्नाधिक को “दीक्षापर्याय में न्पून हो तो भी वंदन करना, ऐसा अर्थ युक्त नहीं है, कारण कि रत्नाधिक तो दीक्षा पर्याय से अधिक ही होते हैं। इस प्रकार यहाँ माना है, अतः दीक्षापर्याय में न्युन ऐसे चार कहे है। 100
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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