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________________ को भी वंदन करने के लिए कहा है। उसका कारण यह है कि पार्श्वस्थादि साधु यद्यपि चारित्र रुप गुण से दूर है। फिर भी सम्यक्त्व भ्रष्ट नहीं है, प्रभु के वेश के धारक है, इसलिए साधुवेष देखकर भी इनको वंदना करनी चाहिये, इस प्रकार कितनेक आचार्योका मत है। लेकिन , इस अभिप्राय से की हुई वंदन प्रायः करके अनर्थवाली होती है, इस विषय पर चर्चा विचारणा आवश्यक नियुक्ति में से जानने योग्य है। तथा प्रमाद वाले पार्श्वस्थादि साधु को वंदन करने से उसके सभी प्रमादस्थान वंदनीय बनते है अतः प्रमादी मुनि अवंदनीय है। तथा पार्श्वस्थादि का संग करने वाले साधु भी अवंदनीय है। प्रश्न:- परिचय मे आये हुए साधुओं को तो पार्श्वस्थादि लक्षण युक्त जानकर वंदन नहीं करेंगे, लेकिन अपरिचित साधु भगवन्त गाँव मे पधारें तो उनको वंदना करनी चाहिये या नहीं? उत्तर:- पूर्व परिचय में नहीं आये हुए मुनि भगवन्तों को प्रथम तो उचित विनय और वंदनादि करना उचित है। लेकिन शिथिल हैं, ऐसा ज्ञात होने पर वंदनादि करना उचित नही है। इस के बारे में आवश्यक नियुक्ति में जो उपयोगी चर्चा है, उसका स्पष्ट संक्षिप्त सार इस तरह है। प्रश्न:- अध्यवसाय की विशुद्धि से ये सुसाधु हैं। और अविशुद्धि से ये पार्श्वस्थादि पतित साधु हैं, इस प्रकार जाणना हम छद्मस्थों के लिए मुश्किल है। इसलिए हम तो उन्हे साधुवेष देखकर वंदना करे, तो क्या उचित है। उत्तर:- यदि केवल साधुवेष देखकर ही वंदना करते हो तो, जमाली विगेरे मिथ्या दृष्टिओं को भी साधुवेष के कारण वंदना करनी पडेगी और ऐसे स्पष्ट मिथ्याद्रष्टिओ को साधुवेष होने पर भी वंदना करना निषेध है। इसलिए केवल साधुवेष ही वंदनीय है, इस प्रकार बोलना उचित नहीं है। .. प्रश्न:- यदि वंदना करने में साधुवेष को मुख्य नही मानें तो छद्मस्थजीव साधुअसाधु को कैसे पहचानें ? बहुत सी बार असाधु भी साधुजैसी प्रवृत्ति वाला होता है, और किसी समय कारण वशात् सुविहित साधु भी असाधु जैसी प्रवृत्ति वाला होता है, अतः साधुवेष को वंदना नहीं करे तो क्या करे? (x) दंसणपक्खो सावय, चरितटठे य मंदधम्मे य । दंसण चरित पक्खो, समणे परलोग कंखम्मि इसमें मन्दधर्मेच पार्श्वस्थादौ इति वचनात् (आ. नियुक्ति इस गाथा का भावार्थ:श्रावक तथा कुछेक अनवस्थित साधु व पार्श्वस्थादि साधुओं में दर्शनपक्ष-सम्यक्त्व होता है। और परलोक की आंकाक्षावाले सुसाधु में तो दर्शनपक्ष (उपलक्षण से ज्ञानपक्ष)और चारित्र पक्ष दोनो ही (उपलक्षण से तीनो ही) होते हैं। 98
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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