________________
सुबह में इन्तजार करने पर भी भाणेज मुनि वंदन करने के लिए नही आये, तब स्वयं शीतला चार्य भाणेज मुनिओं के पास आये। भाणेज मुनि केवली थे अतः उन्होने आचार्य का योग्य सत्कार नहीं किया । जिससे शीतला चार्य ने रोष सहित उन्हे अविनयी और दुष्ट शिष्य जानकर स्वयं ने उनको वंदन किया। (यह द्रव्य वंदन कर्म समजना) तब केवलि मुनिओने कहा कि 'ये तो द्रव्य वंदना हुई, अब भाव वंदना करो।' शीतलाचार्य
ने पूछा 'आपने कैसे जाना ?' केवली ने कहा ज्ञान से, शीतलाचार्य ने पूछा किस ज्ञान से? केवली ने कहा अप्रतिपाति ज्ञान से, । इस प्रकार सुनते ही शीतलाचार्य का क्रोध शान्त हो गया । और केवलि मुनिओ के चरणों में मस्तक झुकाकर अपराध की क्षमा मांगने लगे । शीतलाचार्य शुभभावों पर आरुद हुए, और केवलज्ञान प्राप्त किया ये उनका भाव वंदन कर्म है ( प्रवo सारो० वृत्ति) ॥ इति प्रथम दृष्टान्त ||
|| २ चितिकर्म में क्षुल्लकाचार्य का दृष्टान्त ||
श्री गुणसुंदरसूरि नाम के आचार्य ने एक क्षुल्लक मुनि ( लघुवय वाले मुनि को) को संघकी अनुमति से आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । और कालधर्म को प्राप्त हुए। सभी गच्छवासी मुनि क्षुल्लकाचार्य की आज्ञा का पालन करने लगे । क्षुल्लकाचार्य भी गीतार्थ मुनिओं के पास श्रुत अभ्यास करते है। एक बार क्षुल्लकाचार्य को मोहनीय कर्म के उदयसे चारित्र छोड़ने की ईच्छा हुई। एक मुनि को साथ लेकर देहचिंता का बहाना बनाकर जंगल में गये । साथ में आये मुनि वृक्ष की ओट मे खड़े रहे। क्षुल्लकाचार्य आगे चलते ही गये चलते एक सुन्दर वन में पहुचे, वहाँ अनेक उत्तम वृक्ष थे, फिरभी एक चबुतरे वाले खेजड़े के वृक्ष की लोग पूजा कर रहे थे। वो विचार करते है इस वृक्ष की पूजनीयता में इसका चबुतरा (पीठिका) ही मुख्य कारण है। वर्ना ये दूसरे वृक्षों को भी पूजते । लोगो को पूछने पर भी जवाब मिला कि इमारे पूर्वज इसे पूजते आये है, इसलिए हमभी इस खेजड़े को पूज रहे है। इस प्रकार सुनकर क्षुल्लकाचार्य ने विचार किया कि 'इस खेजड़े की तरक मै भी निर्गुण हूँ । गच्छ के अंदर तिलक, बकुल आदि उत्तम वृक्षों के समान अनेक राजकुमार मुनि है । फिरभी गुरुने उनको आचार्य पद नही दिया और मुझे दिया, जिसके कारण गच्छ के मुनि मुझे पूजते है। क्षुल्लकाचार्य विचार करने लगे, मेरे में श्रमणभाव तो बिलकुल नही है, लेकीनं रजोहरण आदि उपकरण मात्र रुप मेरे चितिगुण के कारण, और गुरु ने मुझे आचार्य पद दिया है, इसी कारण पूजते है । "इस प्रकार विचार कर पुनः वापस उपाश्रय आये । ढूंढने आये मुनिओं को कहा कि " देहचिंता के लिए जाते समय अकस्मात् शुल वेदना उत्पन्न हुई, इसलिए इतना विलंब हुआ इस प्रकार
92