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________________ बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि वि पायडा गुणा होति । णढे घाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ॥३२०॥ पूर्वोक्त चार घाति कर्मों का नाश होने पर जीव के दर्शन, ज्ञान, सुख और बल ये चार गुण प्रकट हो जाते हैं और वह जीव लोक एवं अलोक को प्रकाशित करने लगता है। णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होदि फुडं ॥ ३२१॥ इसे स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि परमात्मा ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध है और दरअसल हमारी कर्म रहित आत्मा ही वह परमात्मा है। इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवजिओ सयलो। तिहुवणभवणपदीवो देउ ममं उत्तमं बोहिं ॥ ३२२॥ वह (परमात्मा) घाति कर्मों और क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित है। (अरिहन्त होने के कारण) सशरीर है। तीन लोक रूपी भवन का दीप है। वह मुझे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करे। जिणवचरणंबुरुहं णमंदिजे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेल्लिमूलं खणंदि वरभावसत्थेण ॥ ३२३॥ जो व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों में परम भक्तिराग पूर्वक नमन करते हैं वे श्रेष्ठ भाव रूपी शस्त्र से जन्म रूपी लता की जड़ को ही खोद डालते हैं। उन्हें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता। 85
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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