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________________ इयमिच्छतावासें कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो । भमिदो अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ॥ ३११ ॥ इस प्रकार कुत्सित नीति और कुत्सित शास्त्रों के मोह में फँसा हुआ यह जीव मिथ्या दृष्टियों के इस संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है । हे धैर्यवान मुने, तुझे इस सन्दर्भ में विचार करना चाहिए। पासंडी तिण्णि सदा तिसट्ठि भेया उमग्ग मुत्तूण | रुं भहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥ ३१२ ॥ जीव, बस इतना कर कि पाखण्डियों के तीन सौ त्रेसठ भेदोंवाले उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अपना मन लगा । प्रलापपूर्वक और निरर्थक अधिक कहने से क्या ? जीवविमुको सबओ दंसणमुक्को य होदि चलसबओ । सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ ॥ ३१३॥ जीव रहित व्यक्ति मुर्दा है तो सम्यग्दर्शन रहित व्यक्ति चलता फिरता मुर्दा है। मुर्दा संसार में और चलता-फिरता मुर्दा लोकोत्तर में अपूज्य होता है। जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ॥ ३१४ ॥ जैसे नक्षत्रों पर चन्द्रमा और तमाम पशुसमूह पर शेर भारी पड़ता है वैसे ही मुनि और श्रावक इन दो प्रकार के धर्मों पर सम्यक्त्व भारी पड़ता है । 83
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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