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________________ जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति । छिंदति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं ॥ २६२ ॥ ये जो इन्द्रिय सुख के लिए व्याकुल द्रव्यमुनि हैं ये संसार रूपी वृक्ष को नहीं काट सकते। इस वृक्ष को तो सिर्फ भावमुनि ही ध्यान के कुल्हाड़े से काटते हैं। जह दीवो गब्भहरे मारूयबाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायाणिलरहिओ झाणपईवो वि पजलइ ॥ २६३ ॥ जैसे मध्य के घर (गर्भगृह) में हवा की बाधा से रहित होकर दीपक जलता है वैसे ही ध्यान का दीपक राग रूपी हवा से रहित होकर जलता है। झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए । णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ॥ २६४॥ हे मुने, तू पंचगुरु अर्थात् पंच परमेष्ठी का ध्यान कर/पंच परमेष्ठी ही मंगलकारी हैं, चार शरण और चार लोकोत्तम (अरिहन्त, सिद्ध, साधु, केवली प्रणीत धर्म) से युक्त हैं, नर सुर विद्याधर सहित हैं, पूज्य हैं, आराधना (दर्शन ज्ञान चारित्र तप) के नायक हैं और वीर हैं। णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ॥ २६५ ॥ ज्ञानमय निर्मलशीतलजलकासम्यक्त्वभावसे उपयोग करकेभव्यजीवरोग, वृद्धावस्था, मृत्यु वेदना और दाह से मुक्त होते हैं और शिव अर्थात् परमानन्द स्वरूप हो जाते हैं। 79
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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