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________________ भावहि पढमं तच्च बिदियं तदियं चउत्थ पंचमयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहरणं तिवग्गहरं ॥ २८४॥ हे मुने, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध और संवर इन पाँच तत्त्वों का और त्रिकरण अर्थात् मनवचनकाय/कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध होकर आदि अन्त रहित और धर्म अर्थ काम को हरने वाले आत्म स्वरूप का चिन्तन करना । जाव ण भाव तच्वं जाव ण चिंतेदि चिंतणीयाई । तावण पाव जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥ २८५ ॥ हे मुने, जीव जब तक जीवादि तत्त्वों का और चिन्तन करने योग्य का चिन्तन नहीं करता तब तक उसे वृद्धावस्था और मृत्यु से रहित मोक्षस्थान की प्राप्ति नहीं होती । पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा । परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणेदिट्ठो || २८६ ॥ जिनशासन में यही प्रतिपादित है कि भाव से ही अशेष पाप होता है। भाव से ही अशेष पुण्य होता है और भाव से ही बन्ध एवं मोक्ष होता है। मिच्छत्तं तह कसायासंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं । बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुंहो जीवो ॥२८७॥ योग (मन, वचन, काय की वर्गणा से आत्मप्रदेशों का संकोच - विस्तार), मिथ्यात्व, कषाय और असंयम में अशुभ लेश्या होती है। इसलिए इन भावों से जीव जिनेन्द्र भगवान् के वचनों मुख होता है और अशुभ कर्म को बाँधता है। F
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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