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________________ देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचतो । अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥ २२६॥ देह आदि के परिग्रहों तथा मानकषाय से रहित हो और आत्मा में ही लीन रहता हो वह भावलिंगी मुनि (भाव मुनि) है। ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममतिमुवट्ठिदो । आलंबणं च मे आदा अक्सेसाई वोसरे ॥ २२७॥ भावलिंगी मुनि पर- द्रव्यों से ममत्व त्याग कर निर्ममत्व अंगीकार कर लेता है । वह सोचता है कि अब आत्मा ही मेरा अवलम्ब है। मैं शेष सभी कुछ छोड़ता हूँ । आदा खु मज्झणाणे आदा मे दक्षणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥ २२८॥ वह सोचता है, मेरे ज्ञान में, मेरे दर्शन में, मेरे चारित्र में, मेरे प्रत्याख्यान (भावी दोष निवारण), संवर (कर्म के आम्रव का निरोध) और योग (समाधि ध्यान) में भी आत्मा ही तो है । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदसलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥२२६॥ वह सोचता है, एक ज्ञानदर्शन स्वरूप आत्मा ही मेरी है। शेष सभी भाव मुझसे बाह्य हैं, पर - द्रव्य हैं । भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविशुद्धणिम्मलं चेव । लहु चउगइ चइऊणं जदि इच्छह सासयं सुक्खं ॥ २३० ॥ हे मुनिजनो, यदि चार गति रूप संसार से शीघ्र ही छूटकर शाश्वत सुख की इच्छा है तो भाव में शुद्ध निर्मल और विशुद्ध आत्मा का भावन करो । 63
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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