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सत्तसु णरयावासे दारुणभीमाई असहणीयाई ।
भुत्ताइ सुइरकालं दुक्खाई णिरंतरं सहिद ॥ १७६ ॥ हे जीव तू सात नरकों में भयानक, तीव्र और असहनीय दुःखों को दीर्घ काल तक निरन्तर भोगता और सहता रहा है।
खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च ।
पतो सि भावरहिदो तिरियगईए चिरं कालं ॥ १८० ॥ हे जीव, भावरहित होने के कारण तूने तिर्यंच गति में चिर काल तक खनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, विच्छेदन, निरोधन आदि दुःखों को झेला है।
आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि ।
दुक्खाइ मणुयजम्मे पत्तो सि अणंतयं कालं ॥ १८१ ॥ हे जीव, मनुष्यगति में भी जन्म लेकर तू ने आकस्मिक (भूकम्प, बाढ़ आदि) मानसिक, सहज (जैसे जन्म) और शारीरिक ये चार प्रकार के दुःख पाए हैं।
सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं ।
संपत्तो सि महाजस दुक्खं सुहभावणारहिदो ॥१८२ ॥ हे महान यशस्वी, शुभ भाव से रहित होने के कारण देवगति में भी तुझे देव अथवा अप्सरा के वियोग जैसा तीव्र मानसिक दुःख झेलना पड़ा है।
कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य ।
भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ ॥१८३ ।। हे जीव, तू द्रव्यलिंगी मुनि होकर कन्दर्प आदि पाँच अशुभ भावनाओं से ग्रस्त रहा। फलस्वरूप स्वर्ग में तुझे प्रहीण देवता अर्थात् नीच देवता होकर उत्पन्न होना पड़ा।
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