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________________ एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं । ओरालियं च कायं णायव् अरहपुरिसस्स ॥ १४७ ॥ इस प्रकार अरिहन्त की देह उपर्युक्त गुणों के कारण अतिशयमय तथा परिमल की गन्धमय होती है। मयरायदोसरहिओ कसायमलवज्जिओ य सुविसुद्धो । चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो ॥१४८ ॥ अरिहन्त में मद, राग जैसे दोष नहीं होते। वे कषायों से मुक्त होते हैं। विशुद्ध होते हैं और मनोविकारों से परे होते हैं। दरअसल एक केवलज्ञान ही उनकी पहचान है। सम्मइंसणि पस्सदि जाणदिणाणेण दव्वपज्जाया । सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो ॥ १४ ॥ अरिहन्त सम्यग्दर्शन द्वारा सम्पूर्ण अस्तित्व को देखते हैं और सम्यग्ज्ञान द्वारा तमाम द्रव्य पर्यायों को जानते हैं। वे अपने सम्यक्त्व गुण के कारण पूर्णतः निर्मल होते हैं। सुण्णहरे तरुहितु उज्जाणे तह मसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ।। १५०॥ दीक्षा धारण किए हुए मुनि सूने घर, वृक्षमूल के कोटर, उद्यान, श्मशान भूमि, पर्वत की गुफा या उसकी चोटी, भयानक वन अथवा वस्तिका में ठहर सकते हैं। 44
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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