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सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जदि व सुपसिद्धा ।
णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥७२ ॥ • सम्यक्त्व के आचरण से शुद्ध और संयम के आचरण में ऊँचाई पर पहुँचे हुए अमूढ़ दृष्टि ज्ञानियों को निर्वाण की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है।
सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जे वि णरा।
अण्णाणणाणमूढा तह विण पावंति णिव्वाणं ॥७३ ॥ सम्यक्त्व से रहित जो व्यक्ति सिर्फ़ संयम का आचरण करते हैं वे अज्ञानी और मूढ़ दृष्टि हैं। उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती।
वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए । मग्गगुणसंसणाए अवगृहण रक्खणाए य ॥७४ ॥ एएहि लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अज्जबेहिं भावेहिं ।
जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥ ७५ ॥ मोह से मुक्त हुआ व्यक्ति अगर जिनेन्द्र भगवान् के प्रति श्रद्धा रखता हुआ आराधना में तल्लीन रहता है और सरल परिणामों के साथ वात्सल्य, विनय, अनुकम्पा, सुपात्र को दान देने की दक्षता, मोक्षमार्ग के प्रति प्रशंसाभाव, उपगूहन और रक्षण जैसे लक्षणों से युक्त है तो वह सम्यग्दृष्टि है।
उच्छाहभावणासंपसंससेवा कदंसणे सद्धा।
अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ॥७६ ॥ अज्ञान तथा मोहकर्म के मार्ग कुदर्शन के प्रति श्रद्धा, उत्साह, प्रशंसा और सेवाभाव रखने वाला व्यक्ति सम्यग्दर्शन से वंचित हो जाता है।
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