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सहजुप्पण्णं रूवं दर्छ जो मण्णए ण मच्छरिओ ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी होदि एसो ॥ २४ ॥ जो (भगवान् के) यथाजात (नग्न) रूप को देखकर उसके प्रति विनय भाव नहीं रखते वे ईर्ष्याग्रस्त और दीक्षा ग्रहण करने के बावजूद मिथ्यादृष्टि हैं।
अमराण वंदियाणं रूवं दठूण सीलसहियाणं ।
जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होति ॥ २५ ॥ अणिमाआदि ऋद्धियों के स्वामी और देवताओं द्वारा वन्दित भगवान् के स्वरूप को देखकर जो विनय करने के स्थान पर गर्वोन्नत बनते हैं वे सम्यग्दर्शन से रहित हैं।
अस्संजदंण वन्दे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज । .
दोण्णि वि होंति समाणा एगो विण संजदो होदि ॥ २६ ॥ न तो असंयमी व्यक्ति वन्दना योग्य है और न खाली वस्त्ररहित व्यक्ति। इनमें से कोई भी संयमी नहीं है। दोनों समान रूप से असंयमी हैं।
ण वि देहो वंदिज्जइण वियू कुलोण वि य जाइसंजुत्तो ।
को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ ॥ २७ ॥ नदेह वन्दनीय है, नकुल और न किसी जाति विशेष का होना वन्दनीय है। गुणविहीन व्यक्ति की वन्दना क्या करना? वह न तो सच्चा श्रमण है और न सच्चा श्रावक।
वंदमि तवसावण्णा सीलंय गुणं य बंभचेरं य ।
सिद्धिगमणं य तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावणे ॥ २८ ॥ तपस्वी श्रमण ही वन्दनीय हैं। सम्यग्दृष्टि पूर्वक शुद्ध भाव से उनके शील, गुण, ब्रह्मचर्य और मोक्षगमन की वन्दना करनी चाहिए।
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