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________________ जाए विसयविरतो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा। ता लेहदि अरुहपयं भणिद जिणवड्ढमाणेण॥४६॥ जो जीव नरक में होते हुए भी विषयों से विरक्त होता है उसकी नरकवेदना कम हो जाती है और वर्द्धमान जिनेन्द्र भगवान् तो यहाँ तक कहते हैं कि वह नरक से निकलकर तीर्थंकर पद भी पा सकता है। एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाणदरसीहिं। सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं॥४६६॥ इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान, दर्शन के धंनी और लोकालोक के ज्ञाता जिनेन्द्र भगवान् बहुत प्रकार से कहते हैं कि शील से व्यक्ति को मोक्षपद, जो इन्द्रियातीत ज्ञानसुख का भण्डार है, प्राप्त होता है। सम्मतणाणदसणतववीरियपंचयारमप्पाणं। जलणो वि पवणसहिदो डहति पोरायणं कम्मं ॥४६७॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य (शक्ति) ये पाँच आचार आत्मा का आश्रय पाकर पुराने कर्मों को ऐसे ही जलाकर भस्म कर देते हैं जैसे आग तेज़ हवा में पुराने ईंधन को जलाकर राख कर देती है। णिद्दड्ढअट्ठकम्मा विसयविरता जिदिदिया धीरा। तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता॥४६८॥ आठ कर्मों को जला चुकने वाले, विषयों से विरक्त, जितेन्द्रिय, धैर्यशाली और तप, विनय, शील के धनी जीव तो मोक्ष को प्राप्त कर चुके सिद्ध हैं। 126
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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