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________________ रएसु वेयणाओ तिरिक्ख माणवेसु दुक्खा । देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा ॥ ४८६ ॥ विषयों में आसक्त जीव नरकों के कष्ट, तिर्यञ्चों और मनुष्यों के दुःख तथा देवों के भी दुर्भाग्यों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। वे चारों गतियों में दुःख पाते हैं। धम्मतबलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि । तवसीलमत कुसली खवंति विसयं विस व खलं ॥ ४८७॥ जैसे तुषों (भूसी) को उड़ा देने से मनुष्य का कुछ भी मूल्यवान नहीं जाता वैसे ही तपस्वी, शीलवान और कुशल मनुष्य अगर विषयों के विष को तुष की तरह उड़ा दे तो उसका भी कुछ नहीं जाता। वट्टेसु य खंडेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु । अंगे पप्पे सव्वे य उत्तमं सीलं ॥ ४८८ ॥ जीव को अपनी देह में कई सुघट, वृत्ताकार, कई सुन्दर अर्द्धवृत्ताकार, कई बेहद सरल और विशाल चौड़े अंग मिले हैं। लेकिन इन सभी में सबसे उत्तम शील ही है। पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं । संसारे भमिदव्वं अरयघरट्टं व भूदेहिं ॥ ४८६ ॥ कुसमय (कुमति) से मूढ़ बने हुए विषयलोलुप व्यक्ति संसार में रहट की घड़ियों की तरह खुद तो भ्रमण करते ही हैं दूसरों को भी उनके साथ भ्रमण करना पड़ता है। 124
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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