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________________ णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं। संजमहीणो य तवो जदि चरदि णिरत्थयं सव्वं ॥४६८॥ चरित्रहीन ज्ञान, सम्यग्दर्शन विहीन मुनिवेश और संयम विहीन तप का आचरण करना निरर्थक होता है। णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहण च दंसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होदि॥४६६॥ अगर चारित्र से विशुद्ध ज्ञान, दर्शन से विशुद्ध मुनिवेश और संयम से विशुद्ध तप का थोड़ा भी आचरण किया जाता है तो उसका महान फल होता है। णाणं णादूण णरा केई विसयाइभावसंसता। हिंडंति चादुरगदि विसएसु विमोहिया मूढा॥४७०॥ ज्ञान को जानकर (प्राप्त करके) भी कुछ व्यक्ति विषयभावों में आसक्त बने रहते हैं। विषयों में आसक्त वे मूढ़ चतुर्गति रूप संसार में ही भटकते रहते हैं। जे पुण विसयविरता णाणं णादूण भावणासहिदा। छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो॥४७१॥ विषयों से विरक्त और तप तथा गुणों से युक्त जो व्यक्ति ज्ञान को भी प्राप्त कर लेते हैं और उसे बार-बार अपने अनुभव में लेते हुए अपने भाव का विषय बना लेते हैं वे असन्दिग्ध रूप से चतुर्गति रूप संसार का छेदन करते हैं। जह कंचणं विसुद्धं धम्मइयं खडियलवणलेवेण। तह जीवो वि विसुद्ध णाणविसलिलेण विमलेण॥४७२॥ जैसे नमक और सुहागे के लेप से सोना शुद्ध होता है वैसे ही जीव भी ज्ञान रूपी निर्मल जल से शुद्ध होता है। 120
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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