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________________ सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहुपयतेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥४४६॥ जो व्यक्ति श्रमणवेश धारण करके परिग्रह का संग्रह करता है, उसका आर्तध्यान करता है और बहुत प्रयत्न से उसकी रक्षा करता है वस्तुतः उसकी बुद्धि पाप से मोहित है। वह पशु है। श्रमण नहीं है। कलहं वादं जूवा णिच्चं बहुमाणगविओ लिंगी। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ॥४४७॥ श्रमणवेश के बावजूद जो मुनि कषाय से गर्वित-होकर नित्य कलह करता है, विवाद करता है, जुआ खेलता है उस पापी को यह सब करते हुए नरक में जाना पड़ता है। पाओपहदंभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरूवेण। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे ॥४४८॥ श्रमणवेश के बावजूद जो मुनि व्यभिचार में लिप्त होता है उसका आत्मभाव पाप से नष्ट हो गया है। उसकी बुद्धि पाप से मोहित है। उसे संसार के वन में ही परिभ्रमण करते रहना है। उसे मुक्ति नहीं मिलेगी। - दंसणणाणचरिते उवहाणे जइण लिंगरूवेण। अट्ट झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होदि॥४४६॥ . जो मुनि श्रमणवेश धारण करके सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को ध्यान का विषय नहीं बनाता है और आर्तध्यान करता रहता है वह अनन्त संसारी होता है। 115
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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