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________________ सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि। विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ ४२६ ॥ सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदेशित धर्म का पालन करता है। जो इसके विपरीत करता है उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥४३०॥ मिथ्या दृष्टि व्यक्ति, जन्म, जरा तथा मरण की प्रचुरता वाले और हज़ारों दुःखों से भरे हुए इस संसार में सुख से वंचित रहता हुआ परिभ्रमण करता रहता है। सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु ।। ४३१॥ हे भव्य जीव, व्यर्थ बहुत कहने से क्या ?सम्यक्त्व के गुणों और मिथ्यात्व के दोषों पर अपने मन से विचार कर और फिर वह कर जो तेरे मन को अच्छा लगे। बाहिरसंगविमुक्कोण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणादि अप्पसमभावं ॥ ४३२॥ अगर तू आत्मा के समभाव को नहीं जानता तो बाह्य परिग्रह छोड़ने, मिथ्यात्व भाव रहित निर्ग्रन्थ वेश धारण करने, कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहने और मौन धारण करने से क्या ? इनसे कुछ भी हासिल नहीं होगा। मूलगुणं छितूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू । सो ण लहदि सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगो णियदं ॥ ४३३ ।। जो मुनि मूल गुणों को तोड़ मरोड़कर बाह्य कर्मों में लगा रहता है वह मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। वह निस्सन्देह जैन मुनित्व का ग़लत प्रस्तोता है। 111
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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