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________________ विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो। ___ सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो ॥ ३८१॥ जो जीव विषय कषायों से युक्त है, आक्रामक स्वभाव का है, परमात्मा की भावना से रहित और जिन मुद्रा (जिनमत) से विमुख है उसे सिद्धि (मोक्ष) का सुख नहीं मिलता। जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिढ । सिविणे विण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥३८२॥ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट जिनमुद्रा वस्तुतः मोक्षसुख है। अर्थात् मोक्ष सुख का कारण है। जिन्हें स्वप्न में भी यह मुद्रा अच्छी नहीं लगती वे इस गहरे संसार में ही बने रहते हैं। उन्हें मोक्ष नहीं मिलता। परमप्पय झायंतो जोदि मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिद्दिढ़ जिणवरिदेहिं॥३८३॥ परमात्मा के ध्यान में रत योगी आत्मा को मलिन करने वाले लोभकषाय से मुक्त हो जाता है और नये कर्म का आस्रव भी उसे नहीं होता । होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोदि ॥ ३८४॥ ऐसे योगी की बुद्धि सम्यग्दर्शन से भावित होती है और वह दृढ़ चारित्र को धारण करके आत्मा का ध्यान करता हुआ परमात्म पद को प्राप्त करता है। 100
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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