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________________ (२१४] परिग्रह ही स्वर्गमोक्षको नाश करनेवाला है । यही समझ कर धर्मात्मा भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिये पर पदार्थों का ग्रहण तो कभी करना ही नहीं चाहिये और जो अपने पदार्थ हैं उनका परिमाण नियत कर लेना चाहिये। इसीको परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहते हैं ॥४७४॥४७५॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यस्य दासीदासधनस्य च। सुवर्णधान्यकुप्यादेः प्रमाणातिक्रमस्तथा ॥ ४७६ न कार्यः क्रोधलाभोऽपि संसारमूलवर्द्धकः । खानन्दस्वादकैर्भव्यैतानां परिपालकैः ॥ ४७७ क्षेत्र, वास्तु, ( खेत व घर ) हिरण्य (चांदी ) सुवर्ण, धन धान्य, दासी दास, और कुप्य ( वर्तन वस्त्रादिक) ये सब बाह्य परिग्रह कहलाते हैं । इनके प्रमाणका उल्लंघन करना परिग्रहपरिमाणके अतिचार कहलाते हैं। क्रोध लोभ भी संसारके जन्ममरणको बढानेवाले हैं । अत एव अपने आत्मजन्य आनंदका स्वाद लेनेवाले और व्रतोंको पालन करनेवाले भव्य जीवोंको इन सब अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये तथा क्रोध लोभका भी त्याग कर देना चाहिये ॥४७६।।४७७॥ निरोधार्थं च पापानां नानादुःखविधायिनां । नदीपर्वतदेशैश्च मर्यादीकृत्य भूतले ॥ ४७८
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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