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________________ [२०५ ] यस्य चित्ते दयाधर्मो वर्द्धते स्वात्मपोषकः । मैलीप्रमोदभावोऽपि वैरक्लेशादिनाशकः ॥ ४४५ यश्व तीव्रोदयादेव प्रत्यख्यानकर्मणः । त्यक्तुं कान्यपि वस्तूनि न शक्नोति तथापि यः क्षयोपशमयोगाच्चानन्तानुबंधिकर्मणः । ग्रहीतुमपि स्वपरज्ञानतो नेच्छति स्वयम् ॥४७ उच्चकुलादिसंस्कारादहिंसाधर्मपक्षतः । स्वभावात्पंचपापानि न कुर्याद् व्यसनादिकम् ॥ शास्त्रोक्तविधिना येन धृतं यज्ञोपवीतकम् । पाक्षिकः स च विज्ञेयो मद्यमांसादिदूरगः ४४९ जिसके हृदय में अपने शुद्ध आत्मा को पुष्ट करनेवाला दयाधर्म बढ़ रहा है, तथा वैर और क्लेशको नाश करने-वाला मैत्रीभाव और प्रमोदभाव भी बढ रहा हैं, जो अप्रत्यख्यानावरण कर्मके तीव्र उदयसे किसी भी पदार्थ के त्याग करनेमें समर्थ नहीं है तथापि अनन्तानुबंधि कर्मके क्षयोपशम होने से और स्वपरज्ञान प्रगट हो जाने से उन परपदार्थोंको ग्रहण करने की स्वयं इच्छा नहीं करता । जो उच्च कुलके संस्कार होनेसे तथा अहिंसा धर्मकी पक्ष होनेसे स्वभावसे ही पांचों पापोंक
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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