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________________ [१८२] मरना पडे ७९ ॥ ८१ ॥ इसको एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं पिता माता स्वसा बंधुः पुत्री पौत्री सखा सखी। पुत्रः पौलो गृहं भार्या पुरराज्यादि भूषणम् ८२ एते सर्वेऽपि सन्त्यन्ये स्वात्मनस्तत्त्वतो यथा । पूर्वतः पश्चिमः कार्याऽन्यो ज्ञात्वा न परे स्पृहा ॥ - वास्तवमें देखा जाय तो इस संसार में माता, पिता, भाई, बहिन, पुत्री, पोती, सखा, सखी, पुत्र, पौत्र, घर, स्त्री, पुर, राज्य और वस्त्राभूषण आदि समस्त पदार्थ इस आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं और ऐसे भिन्न हैं जैसे पूर्वस पश्चिम सर्वथा भिन्न होती है । यही समझकर भव्य जीवों को अपने आत्मासे भिन्न पदार्थोंमें कभी इच्छा नहीं करनी चाहिये | इसको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं ।। ३८२ . ॥ ३८३ ॥ मलमूत्रभृतो देहो रक्तमांसास्थिपूरितः । रजोवीर्यसमुत्पन्नो जातो घृणितमार्गतः ॥८४॥ एतादृशः शरीरस्य किं योग्यं स्नेहलालनम् । तपस्तप्त्वा च तत्प्राप्य साधयन्तु शिवं जनाः ॥ यह शरीर मलमूत्र से भरा हुआ है, हड्डी मांस और रुधिर से भरा हुआ है, रज वीर्यसे उत्पन्न हुआ है और
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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