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________________ | १६३] अपने आत्मजन्य आनंदामृत रससे अथवा अपने आत्माके उत्तम क्षमादिक धर्मोसे गिरकर अर्थात् उनको छोड़कर जो पुरुष इस भयानक संसाररूपी समुद्र में पड रहे हों वा पडना चाहते हो उनको अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले जो श्रद्धालु पुरुष ज्ञानरूपी अमृतकी वर्षा कर वा धैर्य बंधाकर अथवा धनादिकका दान देकर उसी जिनधर्म के मार्ग वा मोक्षके मार्गमें शीघ्र ही स्थापन कर देते हैं अथवा उनकी स्थिरता कर देते हैं उनके स्थितिकरण नामका सम्यग्दर्शनका छठा अंग होता है ||३३२/३३३॥ मिथ्याप्रपंचं कुटिलं विचारं, विहाय तेषां सुगुणानुरागात् । निःस्वार्थबुध्द्या विनयादिसेवा, स्वात्माश्रितानां जिनधार्मिकाणाम् ॥३४ मनोवचःकायकृतादिभेदैः, कुर्वन्ति ये धर्मविदो दयार्द्राः । वात्सल्यरूपं सुखशांतिदांत, भवेद्धि तेषां विमलं शुभांगम् ॥ ३३५॥ जो श्रावक वा मुनि अपने आत्माकं आश्रित रहनेवाले हैं, उनके श्रेष्ठ गुणांमें अनुराग रखकर तथा अपने मिथ्यात्वके समस्त भेदोंको और कुटिल विचारोंको छोड़कर
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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