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________________ [१५२] विकल्पोंका जाल है। यही समझकर भव्य जीवोंको इस लोभका त्याग कर देना चाहिये और समस्त साम्राज्यका खजाना, स्वर्ग मोक्ष देनेवाला और सुख शांतिका निधान ऐसा शौचधर्म सदा पालन करते रहना चाहिये । ३०८ ॥ ३०९ ॥ अशान्तिदं साध्वसवैरकारि, भ्रान्तिप्रदं धर्मविरुद्धवाक्यम् । संतापदं क्लेशकरं न वाच्यं, प्राणेष्वसत्यं च गतेषु सत्सु ॥३१०॥ तथा सुभव्य स्वपरार्थशान्त्यै निजात्मसिध्यै मधुरं मनोज्ञं । शान्तिप्रदं भ्रान्तिहरं क्षमादं, सत्यं हितं प्रीतिकरं हि वाच्यम् ॥३११॥ असत्य वचन अशांति उत्पन्न करनेवाले हैं, विरोध करनेवाले हैं, भ्रांतिको उत्पन्न करते हैं और धर्मके विरुद्ध हैं । इसके सिवाय असत्यवचन सबको संतप्त करनेवाले हैं और क्लेशको उत्पन्न करनेवाले हैं, ऐसे असत्य वचन भव्य जीवों को अपने प्राण जानेपर भी कभी नहीं बोलने चाहिये तथा अपने आत्मा को और अन्य जीवोंको शांत करनेके लिय वा अपने आत्माकी सिद्ध अवस्था प्राश
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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