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________________ [१४९] स्वमोक्षदा स्वात्मसुखप्रदा वा, दातुं समर्थास्ति च सर्वराज्यम् । ज्ञात्वेति भव्यौर्जिनधर्मलग्नैः, क्षमैव कार्या स्वपरार्थशान्त्यै ॥३०॥ उत्तरः-हे वत्स सुन ! उत्तम क्षमा तीनों लोकोंमें सार है, सर्वोत्कृष्ट है, इच्छानुसार पदार्थोके देनेमें चिंतामणि रत्नके समान है, अत्यंत शान्ति देनेवाली है, वैर विरोधको हरण करनेवाली है, संसाररूपी भयानक समुद्रसे पार करनेवाली है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाली है, अपने आत्म जन्य सुखको देनेवाली है और तीनों लोकोंका राज्य देने में समर्थ है। यही समझकर जिनधर्मम लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको अपने आत्माको शांत करने और अन्य जीवोंको शांत करनेके लिये क्षमा ही धारण करनी चाहिये ॥ ३०२ ॥ ३०३ ।। को मार्दवेनैव यथार्थबुद्धिः, काठिन्यलोपः स्वपरार्थसिद्धिः । स्वात्मानुभूतिर्जिनधर्मवृद्धिः, धर्मानुरागः परिणामशुद्धिः ॥३०४॥ लोके भवद्वैरिविरोधनाशः, स्वराज्यलाभो जननादिनाशः।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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