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________________ [१२१] स्वात्मानुष्ठानमेवापि न करोति न चाचरेत् । श्रद्धानं जिनधर्मस्य स्वर्मोक्षदस्य भक्तितः ॥ २३१ नेत्रवानपि चान्धो हि मूर्ख एव बुधोऽपि सः । विसंगोपि ससंगः स मन्येऽहं विधिवंचितः ॥२३२ प्रतिभात्यात्मबाह्य वा स दीर्घभवधारकः । करे धृत्वा यथा दीपमन्धकूपे पतेत्स्वयम् ॥ २३३ ॥ उत्तरः – जो मनुष्य व्याकरणशाख, कलाशाख, और सुख देनेवाले धर्मशास्त्रको पढकर भी तथा नय और प्रमाणोंसे सुशोभित ऐसे समस्त शास्त्रोंको पढकर भी तथा न्यायाचार्य होकर भी, स्वयं श्रेष्ठ मुनि होकर भी, अत्यंत बुद्धिमान होकर भी वा श्रेष्ठ और चतुर पंडित होकर भी, व्यवहार नयको जानकर भी वा यथार्थ निश्चय नयको जानकर भी अथवा छहों द्रव्योंको जानकर भी और आत्माकं चिन्होंसे अपने आत्मतत्त्वको जानकर भी, जो अपने आत्मा के अनुष्ठानका आचरण नहीं करते हैं अथवा स्वर्गमोक्ष देनेवाले जिनधर्मका भक्तिपूर्वक श्रद्धान नहीं करते हैं, वे नेत्रोंको धारण करते हुए भी अंधोंके समान हैं, विद्वान होते हुए भी मूर्ख हैं, परिग्रहरहित होकर भी परिग्रहसहित हैं । इसप्रकार वे अपने कर्मेसि उगे हुए हैं ऐसा मैं मानता हूं । वे लोग आत्मज्ञानके बाहर
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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